हर सुबह सो रहे हैं, रतजगा हो रहा है,
विवेकरंजन श्रीवास्तव
मो.नं. 9425484452
हर सुबह सो रहे हैं, रतजगा हो रहा है,
ये कैसा चलन है, ये क्या हो रहा है।
गुनहगार बे खौफ, बेगुनाह फंस रहा है,
ऐसा इंसाफ अक्सर, ये क्या हो रहा है ।
खुद बखुद हुस्न बेहया ,बेपर्दा हो रहा है,
कैसा बेट़ब है फैशन, ये क्या हो रहा है।
दूध तक है नकली, असल सो रहा है,
सामान पैकेट में हो तो ,सब बिक रहा है।
तालीम की सज , गई हैं दुकानें
पिता मंहगी फीस का कर्ज ढ़ो रहा है ।
ये कैसा चलन है, ये क्या हो रहा है।
मंगलवार, 29 दिसंबर 2009
मंगलवार, 15 सितंबर 2009
मां ! क्षमा करो
मन मेरा मैला , फिर फिर हो जाता है
क्षमा शील हो तुम मां
मां ! क्षमा करो
मैं दुनियावी , फिर फिर अपराध किये जाता हूं
दया वान हो तुम मां
मां ! दया करो
व्रत, त्याग, तपस्या सधती न मुझे , फिर मंदिर आता हूं
बेटा तो तेरा ही हूं मां
मां कृपा करो
विवेक रंजन श्रीवास्तव विनम्र
ओ बी ११ , विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर म.प्र. ४८२००८
मो. ००९४२५८०६२५२
क्षमा शील हो तुम मां
मां ! क्षमा करो
मैं दुनियावी , फिर फिर अपराध किये जाता हूं
दया वान हो तुम मां
मां ! दया करो
व्रत, त्याग, तपस्या सधती न मुझे , फिर मंदिर आता हूं
बेटा तो तेरा ही हूं मां
मां कृपा करो
विवेक रंजन श्रीवास्तव विनम्र
ओ बी ११ , विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर म.प्र. ४८२००८
मो. ००९४२५८०६२५२
देवी गीत
देवी गीत
प्रो सी बी श्रीवास्तव विदग्ध
ओ बी ११ , विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर ,जबलपुर म.प्र.
लगता अच्छा बहुत है यहां मां ! दूर दुनियां से मंदिर में आ के
करके दर्शन तुम्हारे , तुम्हें मां , अपने मन की व्यथा सब सुना के
शांति पाते हैं वे सब दुखी जन , जो भी आते शरण मां तुम्हारी
कही सुख शांति मिलती नही है, देख ली खूब दुनियां ये सारी
बेसहारों को और चाहिये क्या ? मां , तुम्हारी कृपा दृष्टि पा के
जहां तक यहां जाती निगाहें , दिखता रमणीक वातावरण है
बांटती मधुर आलोक सबको , कलश की ज्योति शुभ किरण है
सभी आनन्द भरपूर पाते , छबि तुम्हारी हृदय में बसा के
मन में श्रद्धा औ" आशा संजोये, जग से हारे या किस्मत के मारे
हाथ में लिये पूजा की थाली , आ के दरबार में मां तुम्हारे
तृप्ति पाते हैं जल धूप चंदन फूल फल दीप सब कुछ चढ़ा के
जगाते नये आभास पावन , पूजा व्रत सात्विकी भावनायें
मधुर विश्वास देती हैं मन को , समर्पण भाव की प्रार्थनायें
प्रेम पुलकित हो जाता हृदय है , माता अनुराग के गीत गा के
लगता अच्छा बहुत है यहां मां ! दूर दुनियां से मंदिर में आ के
करके दर्शन तुम्हारे , तुम्हें मां , अपने मन की व्यथा सब सुना के
प्रो सी बी श्रीवास्तव विदग्ध
ओ बी ११ , विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर ,जबलपुर म.प्र.
लगता अच्छा बहुत है यहां मां ! दूर दुनियां से मंदिर में आ के
करके दर्शन तुम्हारे , तुम्हें मां , अपने मन की व्यथा सब सुना के
शांति पाते हैं वे सब दुखी जन , जो भी आते शरण मां तुम्हारी
कही सुख शांति मिलती नही है, देख ली खूब दुनियां ये सारी
बेसहारों को और चाहिये क्या ? मां , तुम्हारी कृपा दृष्टि पा के
जहां तक यहां जाती निगाहें , दिखता रमणीक वातावरण है
बांटती मधुर आलोक सबको , कलश की ज्योति शुभ किरण है
सभी आनन्द भरपूर पाते , छबि तुम्हारी हृदय में बसा के
मन में श्रद्धा औ" आशा संजोये, जग से हारे या किस्मत के मारे
हाथ में लिये पूजा की थाली , आ के दरबार में मां तुम्हारे
तृप्ति पाते हैं जल धूप चंदन फूल फल दीप सब कुछ चढ़ा के
जगाते नये आभास पावन , पूजा व्रत सात्विकी भावनायें
मधुर विश्वास देती हैं मन को , समर्पण भाव की प्रार्थनायें
प्रेम पुलकित हो जाता हृदय है , माता अनुराग के गीत गा के
लगता अच्छा बहुत है यहां मां ! दूर दुनियां से मंदिर में आ के
करके दर्शन तुम्हारे , तुम्हें मां , अपने मन की व्यथा सब सुना के
शनिवार, 28 मार्च 2009
गोकुल तुम्हें बुला रहा हे कृष्ण कन्हैया ।
प्रो सी बी श्रीवास्तव
सी ६ विद्युत मण्डल कालोनी
रामपुर जबलपुर
गोकुल तुम्हें बुला रहा हे कृष्ण कन्हैया ।
वन वन भटक रही हैं ब्रजभूमि की गैया ।
दिन इतने बुरे आये कि चारा भी नही है
इनको भी तो देखो जरा हे धेनू चरैया ।।१।।
करती हे याद देवी माँ रोज तुम्हारी
यमुना का तट औ. गोपियाँ सारी ।
गई सुख धार यमुना कि उजडा है वृन्दावन
रोती तुम्हारी याद में नित यशोदा मैया ।।२।।
रहे गाँव वे , न लोग वे , न नेह भरे मन
बदले से है घर द्वार , सभी खेत , नदी , वन।
जहाँ दूध की नदियाँ थीं , वहाँ अब है वारूणी
देखो तो अपने देश को बंशी के बजैया ।।३।।
जनमन न रहा वैसा , न वैसा है आचरण
बदला सभी वातावरण , सारा रहन सहन ।
भारत तुम्हारे युग का न भारत है अब कहीं
हर ओर प्रदूषण की लहर आई कन्हैया ।।४।।
आकर के एक बार निहारो तो दशा को
बिगड़ी को बनाने की जरा नाथ दया हो ।
मन मे तो अभी भी तुम्हारे युग की ललक है
पर तेज विदेशी हवा मे बह रही नैया ।।५।।
सी ६ विद्युत मण्डल कालोनी
रामपुर जबलपुर
गोकुल तुम्हें बुला रहा हे कृष्ण कन्हैया ।
वन वन भटक रही हैं ब्रजभूमि की गैया ।
दिन इतने बुरे आये कि चारा भी नही है
इनको भी तो देखो जरा हे धेनू चरैया ।।१।।
करती हे याद देवी माँ रोज तुम्हारी
यमुना का तट औ. गोपियाँ सारी ।
गई सुख धार यमुना कि उजडा है वृन्दावन
रोती तुम्हारी याद में नित यशोदा मैया ।।२।।
रहे गाँव वे , न लोग वे , न नेह भरे मन
बदले से है घर द्वार , सभी खेत , नदी , वन।
जहाँ दूध की नदियाँ थीं , वहाँ अब है वारूणी
देखो तो अपने देश को बंशी के बजैया ।।३।।
जनमन न रहा वैसा , न वैसा है आचरण
बदला सभी वातावरण , सारा रहन सहन ।
भारत तुम्हारे युग का न भारत है अब कहीं
हर ओर प्रदूषण की लहर आई कन्हैया ।।४।।
आकर के एक बार निहारो तो दशा को
बिगड़ी को बनाने की जरा नाथ दया हो ।
मन मे तो अभी भी तुम्हारे युग की ललक है
पर तेज विदेशी हवा मे बह रही नैया ।।५।।
आये हैं इस संसार में दिनचार के लिए
आये हैं इस संसार में दिनचार के लिए
प्रो सी बी श्रीवास्तव
सी ६ विद्युत मण्डल कालोनी
रामपुर जबलपुर
सब जी रहे हैं जिन्दगी पीरवार के लिए
पर मन में भारी प्यास लिए प्यार के लिए ।
सुख दिखता तो जरूर है पर िमलता नही है
शायद मिले जो हम जिये संसार के लिए।।1।।
हर दिन यहॉ हर एक की नई भाग दौड है
औरो से अधिक पाने की मन मे होड है।
सुख से सही उसका नही कोई है वास्ता
सारी यह आपाधापी है अधिकार के लिए।।2।।
अधिकार ने सबको सदा पर क्षोभ दिया है
जिसको मिला उसको यहॉ बेचैन किया है।
अिधेकार और धन से कभी भी भर न सका मन
रहा हट नई चाहत व्यापार के लिए ।।3।।
भरमाया सदा मोह ने माया ने फंसाया
खुद के सिवा कोई कभी कुछ काम न आया
रातें रही हों चॉदनी या घोर अंधरी
व्याकुल रहा है घर के ही विस्तार के लिए।।4।।
सचमुच यहॉ पर आदमी गुमराह बहुत है
कर पाता है थोडा सा ही करने को बहुत हैं ।
हम जो भी करे नाथ ! हमें इतना ध्यान हो
आये हैं इस संसार में दिन चार के लिए।।5।।
हमें दीजिए भगवान वह सामथ्र्य और ज्ञान
रहे शुध्द जिससे भावना साित्वक रहे विधान
कुछ ऐसा बने हमसे जो हो जग मे काम का
प्रो सी बी श्रीवास्तव
सी ६ विद्युत मण्डल कालोनी
रामपुर जबलपुर
सब जी रहे हैं जिन्दगी पीरवार के लिए
पर मन में भारी प्यास लिए प्यार के लिए ।
सुख दिखता तो जरूर है पर िमलता नही है
शायद मिले जो हम जिये संसार के लिए।।1।।
हर दिन यहॉ हर एक की नई भाग दौड है
औरो से अधिक पाने की मन मे होड है।
सुख से सही उसका नही कोई है वास्ता
सारी यह आपाधापी है अधिकार के लिए।।2।।
अधिकार ने सबको सदा पर क्षोभ दिया है
जिसको मिला उसको यहॉ बेचैन किया है।
अिधेकार और धन से कभी भी भर न सका मन
रहा हट नई चाहत व्यापार के लिए ।।3।।
भरमाया सदा मोह ने माया ने फंसाया
खुद के सिवा कोई कभी कुछ काम न आया
रातें रही हों चॉदनी या घोर अंधरी
व्याकुल रहा है घर के ही विस्तार के लिए।।4।।
सचमुच यहॉ पर आदमी गुमराह बहुत है
कर पाता है थोडा सा ही करने को बहुत हैं ।
हम जो भी करे नाथ ! हमें इतना ध्यान हो
आये हैं इस संसार में दिन चार के लिए।।5।।
हमें दीजिए भगवान वह सामथ्र्य और ज्ञान
रहे शुध्द जिससे भावना साित्वक रहे विधान
कुछ ऐसा बने हमसे जो हो जग मे काम का
जब अंधेरा हो घना घटायें घिरें
दीप ऐसे जलायें इस दिवाली की रात
कि जो देर तक,दूर तक उजाला करें
हो जहाँ भी, या कि जिस राह पर
पथिक को राह दिखला सहारा करें
जब अंधेरा हो घना घटायें घिरें
राह सूझे न मन में बढ़ें उलझने
देख सूनी डगर, डर लगे तन कंपे
तय न कर पाये मन क्या करें न करें
तब दे आशा जगा आत्म विश्वास फिर
उसके चरणो की गति को संवांरा करें
दीप ऐसे जलायें इस दिवाली की रात
कि जो देर तक, दूर तक उजाला करें
हर घड़ी बढ़ रही हैं समस्यायें नई
अचानक बेवजह आज संसार में
हो समस्या खड़ी कब यहाँ कोई बड़ी
समझना है कठिन बड़ा व्यवहार में
दीप ऐसे हो जो दें सतत रोशनी
पथिक की भूल कोई न गवारा करें
दीप ऐसे जलायें इस दिवाली की रात
कि जो देर तक, दूर तक उजाला करें
रास्ते तो बहुत से नये बन गये
पर बड़े टेढ़े मेढ़े हैं, सीधे नहीं
मंजिलों तक पहुंचने में हैं मुश्किलें
होती हारें भी हैं, सदा जीतें नहीँ
जूझते खुद अंधेरों से भी रात में
पथ दिखायें जो न हिम्मत हारा करें
दीप ऐसे जलायें इस दिवाली की रात
कि जो देर तक, दूर तक उजाला करें
--प्रो.सी.बी.श्रीवास्तव
कि जो देर तक,दूर तक उजाला करें
हो जहाँ भी, या कि जिस राह पर
पथिक को राह दिखला सहारा करें
जब अंधेरा हो घना घटायें घिरें
राह सूझे न मन में बढ़ें उलझने
देख सूनी डगर, डर लगे तन कंपे
तय न कर पाये मन क्या करें न करें
तब दे आशा जगा आत्म विश्वास फिर
उसके चरणो की गति को संवांरा करें
दीप ऐसे जलायें इस दिवाली की रात
कि जो देर तक, दूर तक उजाला करें
हर घड़ी बढ़ रही हैं समस्यायें नई
अचानक बेवजह आज संसार में
हो समस्या खड़ी कब यहाँ कोई बड़ी
समझना है कठिन बड़ा व्यवहार में
दीप ऐसे हो जो दें सतत रोशनी
पथिक की भूल कोई न गवारा करें
दीप ऐसे जलायें इस दिवाली की रात
कि जो देर तक, दूर तक उजाला करें
रास्ते तो बहुत से नये बन गये
पर बड़े टेढ़े मेढ़े हैं, सीधे नहीं
मंजिलों तक पहुंचने में हैं मुश्किलें
होती हारें भी हैं, सदा जीतें नहीँ
जूझते खुद अंधेरों से भी रात में
पथ दिखायें जो न हिम्मत हारा करें
दीप ऐसे जलायें इस दिवाली की रात
कि जो देर तक, दूर तक उजाला करें
--प्रो.सी.बी.श्रीवास्तव
सिध्दिदायक गजवदन
सिध्दिदायक गजवदन
जय गणेश गणाधिपति प्रभु , सिध्दिदायक , गजवदन
विघ्ननाशक दष्टहारी हे परम आनन्दधन ।।
दुखो से संतप्त अतिशय त्रस्त यह संसार है
धरा पर नित बढ़ रहा दुखदायियो का भार है ।
हर हृदय में वेदना , आतंक का अधियार है
उठ गया दुनिया से जैसे मन का ममता प्यार है ।।
दीजिये सब्दुध्दि का वरदान हे करूणा अयन ।।१।।
जय गणेश गणाधिपति प्रभु , सिध्दिदायक , गजवदन
विघ्ननाशक दष्टहारी हे परम आनन्दधन ।।
दुखो से संतप्त अतिशय त्रस्त यह संसार है
धरा पर नित बढ़ रहा दुखदायियो का भार है ।
हर हृदय में वेदना , आतंक का अधियार है
उठ गया दुनिया से जैसे मन का ममता प्यार है ।।
दीजिये सब्दुध्दि का वरदान हे करूणा अयन ।।१।।
संकट की मार दुनियॉ ये खूब सह चुकी है।।
भगवान कृपा कीजे यह विश्व शंाति पाये
प्रो सी बी श्रीवास्तव
सी ६ विद्युत मण्डल कालोनी
रामपुर जबलपुर
भगवान कृपा कीजै . यह विश्व शंाति पाये ।
बढी लोभ की लपट में यह जग झुलस न जाये ।।
नई होड बढ चली हैं हर रोज जिंदगी में
लगता है लोक को भी दिखती खुशी इसी में
पर देख पाती कम है लालच भरी निगाहें
ऐसा न हो अधूरा सपना ही टूट जाये।।1।।
हंसते हुए चेहरो के मन में भी उदासी है
सब पा के भी पाने की इच्छा अभी प्यासी है।
आक्रोश भर रहा है संतोष मर रहा है
इस लू भरी हवा में बगिया उजड न जाये ।।2।।
है घेर रखी सबने कॉटो से अपनी बाडी
गडती है नजरो मे पर औरों की चलती गाडी।
हिल मिल न रह सके तो कब तक चलेगा ऐसे
भगवान ज्योति दो वह जो रास्ता दिखाये।।3।।
सपने सजा सुनहरे सदियों से हर चुकी है
संकट की मार दुनियॉ ये खूब सह चुकी है।।
फिर भी उबर न पाई कमजोरीयो से अपनी
हे नाथ ! ज्ञान दीजै खुद को समझ तो पाये ।।4।।
प्रो सी बी श्रीवास्तव
सी ६ विद्युत मण्डल कालोनी
रामपुर जबलपुर
भगवान कृपा कीजै . यह विश्व शंाति पाये ।
बढी लोभ की लपट में यह जग झुलस न जाये ।।
नई होड बढ चली हैं हर रोज जिंदगी में
लगता है लोक को भी दिखती खुशी इसी में
पर देख पाती कम है लालच भरी निगाहें
ऐसा न हो अधूरा सपना ही टूट जाये।।1।।
हंसते हुए चेहरो के मन में भी उदासी है
सब पा के भी पाने की इच्छा अभी प्यासी है।
आक्रोश भर रहा है संतोष मर रहा है
इस लू भरी हवा में बगिया उजड न जाये ।।2।।
है घेर रखी सबने कॉटो से अपनी बाडी
गडती है नजरो मे पर औरों की चलती गाडी।
हिल मिल न रह सके तो कब तक चलेगा ऐसे
भगवान ज्योति दो वह जो रास्ता दिखाये।।3।।
सपने सजा सुनहरे सदियों से हर चुकी है
संकट की मार दुनियॉ ये खूब सह चुकी है।।
फिर भी उबर न पाई कमजोरीयो से अपनी
हे नाथ ! ज्ञान दीजै खुद को समझ तो पाये ।।4।।
चाँद की आये खबर तो ईद हुई
आसमां में गुफ्तगू है चल रही ,
चाँद की आये खबर तो ईद हुई
अम्मी बनातीं थीं सिंवईयाँ दूध में ,
स्वाद वह याद आया लो ईद हुई
नमाज हो मन से अदा,
जकात भी दिल से बँटे,
मजहब महज किताब नहीं
पूरे हुये रमजान के रोजों के दिन ,
सौगात जो खुदा की, वो ईद हुई
आतंक होता अंधा जुनूनी बेइंतिहाँ ,
मकसद है क्या इसका भला
गांधी जयंती ईद है इस दफा ,
जो अंत हो आतंक का तो ईद हुई
नजाकत नफासत और तहजीब की
पहचान है मुसलमानी जमात,
आतंक का नाम अब और मुस्लिम न हो,
फैले रहमत तो ईद हुई
कुरान को समझें,
समझें जिहाद का मतलब,
ईद का पैगाम है मोहब्बत
दिल मिलें,भूल कर शिकवे गिले ,
गले रस्मी भर नहीं ,तो ईद हुई
रौनक बाजारों की , मन का उल्लास ,
नये कपड़े ,और छुट्टी पढ़ाई की
उम्मीद से और ज्यादा मिले ,
ईदी बचपन , और बड़प्पन को ईद हुई
--विवेक रंजन श्रीवास्तव
चाँद की आये खबर तो ईद हुई
अम्मी बनातीं थीं सिंवईयाँ दूध में ,
स्वाद वह याद आया लो ईद हुई
नमाज हो मन से अदा,
जकात भी दिल से बँटे,
मजहब महज किताब नहीं
पूरे हुये रमजान के रोजों के दिन ,
सौगात जो खुदा की, वो ईद हुई
आतंक होता अंधा जुनूनी बेइंतिहाँ ,
मकसद है क्या इसका भला
गांधी जयंती ईद है इस दफा ,
जो अंत हो आतंक का तो ईद हुई
नजाकत नफासत और तहजीब की
पहचान है मुसलमानी जमात,
आतंक का नाम अब और मुस्लिम न हो,
फैले रहमत तो ईद हुई
कुरान को समझें,
समझें जिहाद का मतलब,
ईद का पैगाम है मोहब्बत
दिल मिलें,भूल कर शिकवे गिले ,
गले रस्मी भर नहीं ,तो ईद हुई
रौनक बाजारों की , मन का उल्लास ,
नये कपड़े ,और छुट्टी पढ़ाई की
उम्मीद से और ज्यादा मिले ,
ईदी बचपन , और बड़प्पन को ईद हुई
--विवेक रंजन श्रीवास्तव
खुदा सबका है सब पर मेहरबांन है,
ईद के चाँद की खोज में हर बरस ,
दिखती दुनियाँ बराबर ये बेजार है
बाँटने को मगर सब पे अपनी खुशी,
कम ही दिखता कहीं कोई तैयार है
ईद दौलत नहीं ,कोई दिखावा नहीं ,
ईद जज्बा है दिल का ,खुशी की घड़ी
रस्म कोरी नहीं ,जो कि केवल निभे ,
ईद का दिल से गहरा सरोकार है !! १!!
अपने को औरों को और कुदरत को भी ,
समझने को खुदा के ये फरमान है
है मुबारक घड़ी ,करने एहसास ये -
रिश्ता है हरेक का , हरेक इंसान से
है गुँथीं साथ सबकी यहाँ जिंदगी ,
सबका मिल जुल के रहना है लाजिम यहाँ
सबके ही मेल से दुनियाँ रंगीन है ,
प्यार से खूबसूरत ये संसार है !!२!!
मोहब्बत, आदमीयत ,
मेल मिल्लत ही तो सिखाते हैं सभी मजहब संसार में
हो अमीरी, गरीबी या कि मुफलिसी ,
कोई झुलसे न नफरत के अंगार में
सिर्फ घर-गाँव -शहरों ही तक में नहीं ,
देश दुनियां में खुशियों की खुश्बू बसे
है खुदा से दुआ उसे सदबुद्धि दें,
जो जहां भी कहीं कोई गुनहगार है !!३!!
ईद सबको खुशी से गले से लगा,
सिखाती बाँटना आपसी प्यार है
है मसर्रत की पुरनूर ऐसी घड़ी,
जिसको दिल से मनाने की दरकार है
दी खुदा ने मोहब्बत की नेमत मगर,
आदमी भूल नफरत रहा बाँटता
राह ईमान की चलने का वायदा,
खुद से करने का ईद एक तेवहार है !!४!!
जो भी कुछ है यहां सब खुदा का दिया,
वह है सबका किसी एक का है नहीं
बस जरूरत है ले सब खुशी से जियें,
सभी हिल मिल जहाँ पर भी हों जो कहीं
खुदा सबका है सब पर मेहरबांन है,
जो भी खुदगर्ज है वह ही बेईमान है
भाईचारा बढ़े औ मोहब्बत पले ,
ईद का यही पैगाम , इसरार है !!५!!
--प्रो.सी.बी.श्रीवास्तव
दिखती दुनियाँ बराबर ये बेजार है
बाँटने को मगर सब पे अपनी खुशी,
कम ही दिखता कहीं कोई तैयार है
ईद दौलत नहीं ,कोई दिखावा नहीं ,
ईद जज्बा है दिल का ,खुशी की घड़ी
रस्म कोरी नहीं ,जो कि केवल निभे ,
ईद का दिल से गहरा सरोकार है !! १!!
अपने को औरों को और कुदरत को भी ,
समझने को खुदा के ये फरमान है
है मुबारक घड़ी ,करने एहसास ये -
रिश्ता है हरेक का , हरेक इंसान से
है गुँथीं साथ सबकी यहाँ जिंदगी ,
सबका मिल जुल के रहना है लाजिम यहाँ
सबके ही मेल से दुनियाँ रंगीन है ,
प्यार से खूबसूरत ये संसार है !!२!!
मोहब्बत, आदमीयत ,
मेल मिल्लत ही तो सिखाते हैं सभी मजहब संसार में
हो अमीरी, गरीबी या कि मुफलिसी ,
कोई झुलसे न नफरत के अंगार में
सिर्फ घर-गाँव -शहरों ही तक में नहीं ,
देश दुनियां में खुशियों की खुश्बू बसे
है खुदा से दुआ उसे सदबुद्धि दें,
जो जहां भी कहीं कोई गुनहगार है !!३!!
ईद सबको खुशी से गले से लगा,
सिखाती बाँटना आपसी प्यार है
है मसर्रत की पुरनूर ऐसी घड़ी,
जिसको दिल से मनाने की दरकार है
दी खुदा ने मोहब्बत की नेमत मगर,
आदमी भूल नफरत रहा बाँटता
राह ईमान की चलने का वायदा,
खुद से करने का ईद एक तेवहार है !!४!!
जो भी कुछ है यहां सब खुदा का दिया,
वह है सबका किसी एक का है नहीं
बस जरूरत है ले सब खुशी से जियें,
सभी हिल मिल जहाँ पर भी हों जो कहीं
खुदा सबका है सब पर मेहरबांन है,
जो भी खुदगर्ज है वह ही बेईमान है
भाईचारा बढ़े औ मोहब्बत पले ,
ईद का यही पैगाम , इसरार है !!५!!
--प्रो.सी.बी.श्रीवास्तव
बुधवार, 25 मार्च 2009
मेरी पहली कविता
मेरी पहली कविता के लिये मुझे स्वयं उसे ढ़ूँढ़ना पड़ा .कानपुर से प्रकाशित मासिक पत्रिका वालण्टियर के अगस्त १९७९ अंक में प्रकाशित व संभवतः इंजीनियरिंग कालेज के दिनों में १९७८ लिखी गई निम्न कविता मेरी पहली काव्य कृति है . इससे पहले की तुकबंदियों को मैं अब कविता मानने में संकोच करता हूँ , ये और बात है कि उन दिनों उन्हीं को लिखकर बड़ा खुश होता था .तभी मैंने अपना पेन नेम भी स्वयं ही रख डाला था "विनम्र" , लीजिये प्रस्तुत है मेरी पहली कविता ....
जीवन का उद्देश्य अगर हो
दिशाहीन सागर को देखो
उमड़ घुमड़ करता क्रंदन
सीमायें उसकी हैं पर बालू के कच्चे बंधन
नदिया की धारा , पर
रोक सकें न पर्वत कानन
कैसे रोकें ? , है दिशा युक्त नदिया का जीवन
पार करती नित नई मंजिले
वह भाग रही आनन फानन
जीवन का उद्देश्य अगर हो सफलता मजबूर करती ,
चरण चुंबन !
--विवेक रंजन श्रीवास्तव "विनम्र"
जीवन का उद्देश्य अगर हो
दिशाहीन सागर को देखो
उमड़ घुमड़ करता क्रंदन
सीमायें उसकी हैं पर बालू के कच्चे बंधन
नदिया की धारा , पर
रोक सकें न पर्वत कानन
कैसे रोकें ? , है दिशा युक्त नदिया का जीवन
पार करती नित नई मंजिले
वह भाग रही आनन फानन
जीवन का उद्देश्य अगर हो सफलता मजबूर करती ,
चरण चुंबन !
--विवेक रंजन श्रीवास्तव "विनम्र"
निभें तो सात जन्मों का,अटल विश्वास हैं रिश्ते ..v.r.shrivastava
मुलायम दूब पर,
शबनमी अहसास हैं रिश्ते
निभें तो सात जन्मों का,
अटल विश्वास हैं रिश्ते
जिस बरतन में रख्खा हो,
वैसी शक्ल ले पानी
कुछ ऐसा ही,
प्यार का अहसास हैं रिश्ते
कभी सिंदूर चुटकी भर,
कहीं बस काँच की चूड़ी
किसी रिश्ते में धागे सूत के,
इक इकरार हैं रिश्ते
कभी बेवजह रूठें,
कभी खुद ही मना भी लें
नया ही रंग हैं हर बार ,
प्यार का मनुहार हैं रिश्ते
अदालत में
बहुत तोड़ो,
कानूनी दाँव पेंचों से लेकिन
पुरानी
याद के झकोरों में, बसा संसार हैं रिश्ते
किसी को चोट पहुँचे तो ,
किसी को दर्द होता है
लगीं हैं जान की बाजी,
बचाने को महज रिश्ते
हमीं को हम ज्यादा तुम,
समझती हो मेरी हमदम
तुम्हीं बंधन तुम्हीं मुक्ती,
अजब विस्तार हैं रिश्ते
रिश्ते दिल का दर्पण हैं ,
बिना शर्तों समर्पण हैं
खरीदे से नहीं मिलते,
बड़े अनमोल हैं रिश्ते
जो
टूटे तो बिखर जाते हैं,
फूलों के परागों से
पँखुरी पँखुरी सहेजे गये,
सतत व्यवहार हैं रिश्ते
--विवेक रंजन श्रीवास्तव
शबनमी अहसास हैं रिश्ते
निभें तो सात जन्मों का,
अटल विश्वास हैं रिश्ते
जिस बरतन में रख्खा हो,
वैसी शक्ल ले पानी
कुछ ऐसा ही,
प्यार का अहसास हैं रिश्ते
कभी सिंदूर चुटकी भर,
कहीं बस काँच की चूड़ी
किसी रिश्ते में धागे सूत के,
इक इकरार हैं रिश्ते
कभी बेवजह रूठें,
कभी खुद ही मना भी लें
नया ही रंग हैं हर बार ,
प्यार का मनुहार हैं रिश्ते
अदालत में
बहुत तोड़ो,
कानूनी दाँव पेंचों से लेकिन
पुरानी
याद के झकोरों में, बसा संसार हैं रिश्ते
किसी को चोट पहुँचे तो ,
किसी को दर्द होता है
लगीं हैं जान की बाजी,
बचाने को महज रिश्ते
हमीं को हम ज्यादा तुम,
समझती हो मेरी हमदम
तुम्हीं बंधन तुम्हीं मुक्ती,
अजब विस्तार हैं रिश्ते
रिश्ते दिल का दर्पण हैं ,
बिना शर्तों समर्पण हैं
खरीदे से नहीं मिलते,
बड़े अनमोल हैं रिश्ते
जो
टूटे तो बिखर जाते हैं,
फूलों के परागों से
पँखुरी पँखुरी सहेजे गये,
सतत व्यवहार हैं रिश्ते
--विवेक रंजन श्रीवास्तव
जो सबको बाँधे रखते हैं, ..
कई रंग में रंगे दिखते हैं ,
निश्छल प्राण के रिश्ते
कई हैं खून के रिश्ते,
कई सम्मान के रिश्ते !!
जो सबको बाँधे रखते हैं,
मधुर संबँध बंधन में
वे होते प्रेम के रिश्ते,
सरल इंसान के रिश्ते !!
भरा है एक रस मीठा,
प्रकृति ने मधुर वाणी में
जिन्हें सुन मन हुलस उठता,
हैं मेहमान के रिश्ते !!
जो हुलसाते हैं मन को ,
हर्ष की शुभ भावनाओ से
वे होते यकायक
उद्भूत,
नये अरमान के रिश्ते !!
कभी होती भी देखी हैं,
अचानक यूँ मुलाकातें
बना जाती जो जीवन में,
मधुर वरदान के रिश्ते !!
मगर इस नये जमाने में,
चला है एक चलन बेढ़ब
जहाँ आतंक ने फैलाये,
बिन पहचान के रिश्ते !!
सभी भयभीत हैं जिनसे,
न मिलती कोई खबर जिनकी
जो हैं आतंकवादी दुश्मनों से,
जान के रिश्ते !!
--प्रो.सी.बी.श्रीवास्तव "विदग्ध"
निश्छल प्राण के रिश्ते
कई हैं खून के रिश्ते,
कई सम्मान के रिश्ते !!
जो सबको बाँधे रखते हैं,
मधुर संबँध बंधन में
वे होते प्रेम के रिश्ते,
सरल इंसान के रिश्ते !!
भरा है एक रस मीठा,
प्रकृति ने मधुर वाणी में
जिन्हें सुन मन हुलस उठता,
हैं मेहमान के रिश्ते !!
जो हुलसाते हैं मन को ,
हर्ष की शुभ भावनाओ से
वे होते यकायक
उद्भूत,
नये अरमान के रिश्ते !!
कभी होती भी देखी हैं,
अचानक यूँ मुलाकातें
बना जाती जो जीवन में,
मधुर वरदान के रिश्ते !!
मगर इस नये जमाने में,
चला है एक चलन बेढ़ब
जहाँ आतंक ने फैलाये,
बिन पहचान के रिश्ते !!
सभी भयभीत हैं जिनसे,
न मिलती कोई खबर जिनकी
जो हैं आतंकवादी दुश्मनों से,
जान के रिश्ते !!
--प्रो.सी.बी.श्रीवास्तव "विदग्ध"
मंगलवार, 24 मार्च 2009
घटती जाती सुख सुविधायें , बढ़ती जाती है मँहगाई !!
घटती जाती सुख सुविधायें , बढ़ती जाती है मँहगाई
औ॔" जरूरतों ने जेबों संग , है अनचाही रास रचाई
मुश्किल में हर एक साँस है , हर चेहरा चिंतित उदास है
वे ही क्या निर्धन निर्बल जो , वो भी धन जिनका कि दास है
फैले दावानल से जैसे , झुलस रही सारी अमराई !
घटती जाती सुख सुविधायें , बढ़ती जाती है मँहगाई !!
पनघट खुद प्यासा प्यासा है , क्षुदित श्रमिक ,स्वामी किसान हैं
मिटी मान मर्यादा सबकी , हर घर गुमसुम परेशान है
कितनों के आँगन अनब्याहे , बज न पा रही है शहनाई
घटती जाती सुख सुविधायें , बढ़ती जाती है मँहगाई !!
मेंहदी रच जो चली जिंदगी , टूट चुकी है उसकी आशा
पिसा जा रहा आम आदमी , हर चेहरे में छाई निराशा
चलते चलते शाम हो चली , मिली न पर मंजिल हरजाई
घटती जाती सुख सुविधायें , बढ़ती जाती है मँहगाई !!
मिट्टी तक तो मँहगी हुई है , हुआ आदमी केवल सस्ता
चूस रही मंहगाई जिसको , खुलेआम दिन में चौरस्ता
भटक रही शंकित घबराई , दिशाहीन बिखरी तरुणाई
घटती जाती सुख सुविधायें , बढ़ती जाती है मँहगाई !!
नई समस्यायें मुँह बाई , आबादी ,वितरण , उत्पादन
यदि न सामयिक हल होगा तो ,रोजगार ,शासन , अनुशासन
राष्ट्र प्रेम , चारीत्रिक ढ़ृड़ता की होगी कैसे भरपाई ?
घटती जाती सुख सुविधायें , बढ़ती जाती है मँहगाई !!
--प्रो.सी.बी.श्रीवास्तव
औ॔" जरूरतों ने जेबों संग , है अनचाही रास रचाई
मुश्किल में हर एक साँस है , हर चेहरा चिंतित उदास है
वे ही क्या निर्धन निर्बल जो , वो भी धन जिनका कि दास है
फैले दावानल से जैसे , झुलस रही सारी अमराई !
घटती जाती सुख सुविधायें , बढ़ती जाती है मँहगाई !!
पनघट खुद प्यासा प्यासा है , क्षुदित श्रमिक ,स्वामी किसान हैं
मिटी मान मर्यादा सबकी , हर घर गुमसुम परेशान है
कितनों के आँगन अनब्याहे , बज न पा रही है शहनाई
घटती जाती सुख सुविधायें , बढ़ती जाती है मँहगाई !!
मेंहदी रच जो चली जिंदगी , टूट चुकी है उसकी आशा
पिसा जा रहा आम आदमी , हर चेहरे में छाई निराशा
चलते चलते शाम हो चली , मिली न पर मंजिल हरजाई
घटती जाती सुख सुविधायें , बढ़ती जाती है मँहगाई !!
मिट्टी तक तो मँहगी हुई है , हुआ आदमी केवल सस्ता
चूस रही मंहगाई जिसको , खुलेआम दिन में चौरस्ता
भटक रही शंकित घबराई , दिशाहीन बिखरी तरुणाई
घटती जाती सुख सुविधायें , बढ़ती जाती है मँहगाई !!
नई समस्यायें मुँह बाई , आबादी ,वितरण , उत्पादन
यदि न सामयिक हल होगा तो ,रोजगार ,शासन , अनुशासन
राष्ट्र प्रेम , चारीत्रिक ढ़ृड़ता की होगी कैसे भरपाई ?
घटती जाती सुख सुविधायें , बढ़ती जाती है मँहगाई !!
--प्रो.सी.बी.श्रीवास्तव
मँहगी थाली , मँहगी शिक्षा , मँहगी यात्रा और चिकित्सा................
आम आदमी चिंता में है , कारण इसका है मँहगाई
खास सभी चिंतन में हैं सब , कारण इसका है मँहगाई
अखबारों में सुर्ख हुआ है, "प्राइस इंडैक्स" का बढ़ा केंचुआ
खबरों में "बाजार" बना है , कारण इसका है मँहगाई
सरकारें संकट में हैं सब , जोड़ तोड़ और उठा पटक है
कुर्सी सबकी डोल रही है , कारण इसका है मँहगाई
भारतीय भोजन की चर्चा , आबादी का बढ़ता खर्चा
अमरीकी सीनेट करते हैं , कारण इसका है मँहगाई
राशन पहुँचाने गरीब को , शासन सारा जुटा हुआ है
सुरसा मुख सा बढ़ा बजट है , कारण इसका है मँहगाई
चादर कितनी भी फैलाओ , फिर फिर पाँव उघड़ जाते हैं
सभी विवश हैँ पैर सिकोड़े , कारण इसका है मँहगाई
मँहगी थाली , मँहगी शिक्षा , मँहगी यात्रा और चिकित्सा
यही चाहते हैं हम सब अब , किसी तरह कम हो मंहगाई !
--विवेक रंजन श्रीवास्तव "विनम्र
खास सभी चिंतन में हैं सब , कारण इसका है मँहगाई
अखबारों में सुर्ख हुआ है, "प्राइस इंडैक्स" का बढ़ा केंचुआ
खबरों में "बाजार" बना है , कारण इसका है मँहगाई
सरकारें संकट में हैं सब , जोड़ तोड़ और उठा पटक है
कुर्सी सबकी डोल रही है , कारण इसका है मँहगाई
भारतीय भोजन की चर्चा , आबादी का बढ़ता खर्चा
अमरीकी सीनेट करते हैं , कारण इसका है मँहगाई
राशन पहुँचाने गरीब को , शासन सारा जुटा हुआ है
सुरसा मुख सा बढ़ा बजट है , कारण इसका है मँहगाई
चादर कितनी भी फैलाओ , फिर फिर पाँव उघड़ जाते हैं
सभी विवश हैँ पैर सिकोड़े , कारण इसका है मँहगाई
मँहगी थाली , मँहगी शिक्षा , मँहगी यात्रा और चिकित्सा
यही चाहते हैं हम सब अब , किसी तरह कम हो मंहगाई !
--विवेक रंजन श्रीवास्तव "विनम्र
सोमवार, 23 मार्च 2009
खनक पैसों की इतनी हुई सुहानी बिक रहा पानी
बड़ी तब्दीलियाँ हुई हैं अंधेरे से उजाले तक
नया दिखता है सब कुछ हर घर से दिवाले तक
पुराने घर पुराने लोग उनकी पुरानी बातें
बदल गई सारी दुनियाँ उनकी थाली से प्याले तक
चली है जो नई फैशन बनावट की दिखावट की
लगे दिखने हैं कई चेहरे उससे गोरे कई काले तक
ली व्यवहारों ने करवट इस तरह बदले जमाने में
किसी को डर नहीं लगता कहीं करने घोटाले तक
निडर हो स्वार्थ अपना साधने अक्सर ये दिखता है
दिये जाने लगे हैं झूठे मनमाने हवाले तक
बताने बोलने रहने पहिनने के तरीकों में
नया पन है परसने और खाने में निवाले तक
जमाने की हवा से अब अछूता कोई नहीं दिखता
झलक दिखती नई रिश्तों में अब जीजा से साले तक
खनक पैसों की इतनी हुई सुहानी बिक रहा पानी
नहीं देते जगह अब ठहरने को धर्मशाले तक
फरक आया है तासीरों में भारी नये जमाने में
नहीं दे पाते गरमाहट कई ऊनी दुशाले तक
हैं बदले मौसमों ने आज तेवर यों "विदग्ध" अपने
नहीं दे पाते सुख गर्मी में कपड़े ढ़ीले ढ़ाले तक
- प्रो सी बी श्रीवास्तव
नया दिखता है सब कुछ हर घर से दिवाले तक
पुराने घर पुराने लोग उनकी पुरानी बातें
बदल गई सारी दुनियाँ उनकी थाली से प्याले तक
चली है जो नई फैशन बनावट की दिखावट की
लगे दिखने हैं कई चेहरे उससे गोरे कई काले तक
ली व्यवहारों ने करवट इस तरह बदले जमाने में
किसी को डर नहीं लगता कहीं करने घोटाले तक
निडर हो स्वार्थ अपना साधने अक्सर ये दिखता है
दिये जाने लगे हैं झूठे मनमाने हवाले तक
बताने बोलने रहने पहिनने के तरीकों में
नया पन है परसने और खाने में निवाले तक
जमाने की हवा से अब अछूता कोई नहीं दिखता
झलक दिखती नई रिश्तों में अब जीजा से साले तक
खनक पैसों की इतनी हुई सुहानी बिक रहा पानी
नहीं देते जगह अब ठहरने को धर्मशाले तक
फरक आया है तासीरों में भारी नये जमाने में
नहीं दे पाते गरमाहट कई ऊनी दुशाले तक
हैं बदले मौसमों ने आज तेवर यों "विदग्ध" अपने
नहीं दे पाते सुख गर्मी में कपड़े ढ़ीले ढ़ाले तक
- प्रो सी बी श्रीवास्तव
शब्दों की सीमा असीम है शब्द ब्रह्म है शाश्वत हैं
हौसलों की कसर है बस लहरों से किनारे तक
रात भर का फासला है अँधेरे से उजाले तक
दूर बहुत लगती हो खुद में ही उलझी उलझी
हाथ भर का फासला है हमारे से तुम्हारे तक
मोहब्बत लेती है इम्तिहान कई कई मुश्किल
पहुँचती है तब जाकर अँखियों के इशारे तक
घुली हुई हो गंध हवन की पवन में जैसे
वैसी ही तू बसी हुई है घर के द्वारे द्वारे तक
कौन है जिसके आगे हमसब हरदम बेबस होते है
कैद नहीं ताकत वो कोई मस्जिद और दिवाले तक
घोटालों की शकलें बदलीं वही कहानी पर हर बार
कभी है मंदी कभी है तेजी हर्षद और हवाले तक
शब्दों की सीमा असीम है शब्द ब्रह्म है शाश्वत हैं
शब्द ज्ञान हैँ शब्द शक्ति हैं पोथी और रिसाले तक
- विवेक रंजन श्रीवास्तव
रात भर का फासला है अँधेरे से उजाले तक
दूर बहुत लगती हो खुद में ही उलझी उलझी
हाथ भर का फासला है हमारे से तुम्हारे तक
मोहब्बत लेती है इम्तिहान कई कई मुश्किल
पहुँचती है तब जाकर अँखियों के इशारे तक
घुली हुई हो गंध हवन की पवन में जैसे
वैसी ही तू बसी हुई है घर के द्वारे द्वारे तक
कौन है जिसके आगे हमसब हरदम बेबस होते है
कैद नहीं ताकत वो कोई मस्जिद और दिवाले तक
घोटालों की शकलें बदलीं वही कहानी पर हर बार
कभी है मंदी कभी है तेजी हर्षद और हवाले तक
शब्दों की सीमा असीम है शब्द ब्रह्म है शाश्वत हैं
शब्द ज्ञान हैँ शब्द शक्ति हैं पोथी और रिसाले तक
- विवेक रंजन श्रीवास्तव
शनिवार, 21 मार्च 2009
मृगतृष्णा दे झूठा लालच मन को नित भरमाती जाती !
मृगतृष्णा के आकर्षण में विवश विश्व फँसता जाता है !
बच पाने की इच्छा रख भी नहीं मोह से बच पाता है!!
रंग रूप के चटख दिखावे मन में सहज ललक उकसाते
सुन्दर मनमोहक सपनों का प्रिय वितान एक सज जाता है!!
तर्क वितर्को की उलझन में बुद्धि न कुछ निर्णय कर पाती !
जहाँ देखती उसी दिशा में भ्रम में फँस बढ़ती चकराती !!
वास्तविकता पर परदा डाले भ्रम छलता बन मायावी !
अभिलाषा को नये रंग दे नयनों में बसता जाता है !!
सारा जग यह रंग भूमि है मनोभाव परदे रतनारे !
व्यक्ति पात्र, जीवन नाटक है सुख दुख उजियारे अँधियारे !!
काल चक्र का परिवर्तन करता अभिनय रचता घटनायें !
प्यार बढ़ाती मृग मरीचिका तृप्ति नहीं कोई पाता है !!
ऊपर से संतोष दिखा भी हर अन्तर हरदम प्यासा है !
हरएक आज के साथ जन्मती कल की कोई सुन्दर आशा है !!
मृगतृष्णा दे झूठा लालच मन को नित भरमाती जाती !
मानव मृग सा आतुर प्यासा भागा भागा पछताता है !!
आकुल व्याकुल मानव का मन स्थिर न कभी भी रह पाता है !
सपनों की मादक रुनझुन में सारा जीवन कट जाता है !!
कभी खुमारी कभी वेदना कभी लिये अलसाई चेतना !
मृगतृष्णा में पागल मानव मनचाहा कब कर पाता है
मृगतृष्णा के बड़े जाल में विवश फँसा मन घबराता है !
बच पाने की इच्छा रख भी कहाँ कभी भी बच पाता है
प्रो सी बी श्रीवास्तव विदग्ध
बच पाने की इच्छा रख भी नहीं मोह से बच पाता है!!
रंग रूप के चटख दिखावे मन में सहज ललक उकसाते
सुन्दर मनमोहक सपनों का प्रिय वितान एक सज जाता है!!
तर्क वितर्को की उलझन में बुद्धि न कुछ निर्णय कर पाती !
जहाँ देखती उसी दिशा में भ्रम में फँस बढ़ती चकराती !!
वास्तविकता पर परदा डाले भ्रम छलता बन मायावी !
अभिलाषा को नये रंग दे नयनों में बसता जाता है !!
सारा जग यह रंग भूमि है मनोभाव परदे रतनारे !
व्यक्ति पात्र, जीवन नाटक है सुख दुख उजियारे अँधियारे !!
काल चक्र का परिवर्तन करता अभिनय रचता घटनायें !
प्यार बढ़ाती मृग मरीचिका तृप्ति नहीं कोई पाता है !!
ऊपर से संतोष दिखा भी हर अन्तर हरदम प्यासा है !
हरएक आज के साथ जन्मती कल की कोई सुन्दर आशा है !!
मृगतृष्णा दे झूठा लालच मन को नित भरमाती जाती !
मानव मृग सा आतुर प्यासा भागा भागा पछताता है !!
आकुल व्याकुल मानव का मन स्थिर न कभी भी रह पाता है !
सपनों की मादक रुनझुन में सारा जीवन कट जाता है !!
कभी खुमारी कभी वेदना कभी लिये अलसाई चेतना !
मृगतृष्णा में पागल मानव मनचाहा कब कर पाता है
मृगतृष्णा के बड़े जाल में विवश फँसा मन घबराता है !
बच पाने की इच्छा रख भी कहाँ कभी भी बच पाता है
प्रो सी बी श्रीवास्तव विदग्ध
स्वर्ण मृग हैं विज्ञापन....
स्वर्ण मृग हैं विज्ञापन
जिनका पीछा कर रहे हैं हम
भौतिकता के मारीच ये
गायब हो जाते हैं पल दो पल में
छोड़ जाते हैं
मृगतृष्णा
मृग मरीचिका के
काल्पनिक जल में
खूब नहा रहे हैं हम
ओढ़ रहे हैं
साफ्टवेयर का आकाश
धरती का हार्डवेयर
बिछा रहे हैं हम
इंटरनेट के युग में
बस
मृगतृष्णा ही पा रहे हैं हम
कस्तूरी की गंध है परमात्मा
जो हम सबके अंतस में है
पर उसे पाने
कस्तूरी मृग की तरह
जीवन के जंगल में
भटकते ही जा रहे हैं हम
समझकर भी सच
मृगतृष्णा से प्यास बुझा रहे हैं हम
विवेक रंजन श्रीवास्तव 'विनम्र'
जिनका पीछा कर रहे हैं हम
भौतिकता के मारीच ये
गायब हो जाते हैं पल दो पल में
छोड़ जाते हैं
मृगतृष्णा
मृग मरीचिका के
काल्पनिक जल में
खूब नहा रहे हैं हम
ओढ़ रहे हैं
साफ्टवेयर का आकाश
धरती का हार्डवेयर
बिछा रहे हैं हम
इंटरनेट के युग में
बस
मृगतृष्णा ही पा रहे हैं हम
कस्तूरी की गंध है परमात्मा
जो हम सबके अंतस में है
पर उसे पाने
कस्तूरी मृग की तरह
जीवन के जंगल में
भटकते ही जा रहे हैं हम
समझकर भी सच
मृगतृष्णा से प्यास बुझा रहे हैं हम
विवेक रंजन श्रीवास्तव 'विनम्र'
विद्युत ही जग में , ईश्वर का , लगता रूप विशेष है !!
अग्नि , वायु , जल गगन, पवन ये जीवन का आधान है
इनके किसी एक के बिन भी , सृष्टि सकल निष्प्राण है !
अग्नि , ताप , ऊर्जा प्रकाश का एक अनुपम समवाय है
बिजली उसी अग्नि तत्व का , आविष्कृत पर्याय है !
बिजली है तो ही इस जग की, हर गतिविधि आसान है
जीना खाना , हँसना गाना , वैभव , सुख , सम्मान है !
बिजली बिन है बड़ी उदासी , अँधियारा संसार है ,
खो जाता हरेक क्रिया का , सहज सुगम आधार है !
हाथ पैर ठंडे हो जाते , मन होता निष्चेष्ट है ,
यह समझाता विद्युत का उपयोग महान यथेष्ट है !
यह देती प्रकाश , गति , बल , विस्तार हरेक निर्माण को
घर , कृषि , कार्यालय, बाजारों को भी ,तथा शमशान को !
बिजली ने ही किया , समूची दुनियाँ का श्रंगार है ,
सुविधा संवर्धक यह , इससे बनी गले का हार है !
मानव जीवन को दुनियाँ में , बिजली एक वरदान है
वर्तमान युग में बिजली ही, इस जग का भगवान है !
कण कण में परिव्याप्त , जगत में विद्युत का आवेश है
विद्युत ही जग में , ईश्वर का , लगता रूप विशेष है !!
- प्रो सी बी श्रीवास्तव
इनके किसी एक के बिन भी , सृष्टि सकल निष्प्राण है !
अग्नि , ताप , ऊर्जा प्रकाश का एक अनुपम समवाय है
बिजली उसी अग्नि तत्व का , आविष्कृत पर्याय है !
बिजली है तो ही इस जग की, हर गतिविधि आसान है
जीना खाना , हँसना गाना , वैभव , सुख , सम्मान है !
बिजली बिन है बड़ी उदासी , अँधियारा संसार है ,
खो जाता हरेक क्रिया का , सहज सुगम आधार है !
हाथ पैर ठंडे हो जाते , मन होता निष्चेष्ट है ,
यह समझाता विद्युत का उपयोग महान यथेष्ट है !
यह देती प्रकाश , गति , बल , विस्तार हरेक निर्माण को
घर , कृषि , कार्यालय, बाजारों को भी ,तथा शमशान को !
बिजली ने ही किया , समूची दुनियाँ का श्रंगार है ,
सुविधा संवर्धक यह , इससे बनी गले का हार है !
मानव जीवन को दुनियाँ में , बिजली एक वरदान है
वर्तमान युग में बिजली ही, इस जग का भगवान है !
कण कण में परिव्याप्त , जगत में विद्युत का आवेश है
विद्युत ही जग में , ईश्वर का , लगता रूप विशेष है !!
- प्रो सी बी श्रीवास्तव
शक्ति स्वरूपा ,चपल चंचला ,दीप्ति स्वामिनी है बिजली
शक्ति स्वरूपा ,चपल चंचला ,दीप्ति स्वामिनी है बिजली ,
निराकार पर सर्व व्याप्त है , आभास दायिनी है बिजली !
मेघ प्रिया की गगन गर्जना , क्षितिज छोर से नभ तक है,
वर्षा ॠतु में प्रबल प्रकाशित , तड़ित प्रवाहिनी है बिजली !
क्षण भर में ही कर उजियारा , अंधकार को विगलित करती ,
हर पल बनती , तिल तिल जलती , तीव्र गामिनी है बिजली !
कभी उजाला, कभी ताप तो, कभी मशीनों का ईंधन बन जाती है,
रूप बदल , सेवा में तत्पर , हर पल हाजिर है बिजली !
सावधान ! चोरी से इसकी , छूने से भी , दुर्घटना घट सकती है ,
मितव्ययिता से सदुपयोग हो , माँग अधिक , कम है बिजली !
गिरे अगर दिल पर दामिनि तो , सचमुच , बचना मुश्किल है,
प्रिये हमारी ! हम घायल हैं, कातिल हो तुम, अदा तुम्हारी है बिजली !
सर्वधर्म समभाव सिखाये , छुआछूत से परे तार से , घर घर जोड़े ,
एक देश है ज्यों शरीर और, तार नसों से , रक्त वाहिनी है बिजली !!
- विवेक रंजन श्रीवास्तव
निराकार पर सर्व व्याप्त है , आभास दायिनी है बिजली !
मेघ प्रिया की गगन गर्जना , क्षितिज छोर से नभ तक है,
वर्षा ॠतु में प्रबल प्रकाशित , तड़ित प्रवाहिनी है बिजली !
क्षण भर में ही कर उजियारा , अंधकार को विगलित करती ,
हर पल बनती , तिल तिल जलती , तीव्र गामिनी है बिजली !
कभी उजाला, कभी ताप तो, कभी मशीनों का ईंधन बन जाती है,
रूप बदल , सेवा में तत्पर , हर पल हाजिर है बिजली !
सावधान ! चोरी से इसकी , छूने से भी , दुर्घटना घट सकती है ,
मितव्ययिता से सदुपयोग हो , माँग अधिक , कम है बिजली !
गिरे अगर दिल पर दामिनि तो , सचमुच , बचना मुश्किल है,
प्रिये हमारी ! हम घायल हैं, कातिल हो तुम, अदा तुम्हारी है बिजली !
सर्वधर्म समभाव सिखाये , छुआछूत से परे तार से , घर घर जोड़े ,
एक देश है ज्यों शरीर और, तार नसों से , रक्त वाहिनी है बिजली !!
- विवेक रंजन श्रीवास्तव
शुक्रवार, 20 मार्च 2009
वाह , काश ,उफ , ओह
वाह , काश ,उफ , ओह
वे शब्द हैं
जो
अपने आकार से
ज्यादा , बहुत ज्यादा कह डालते हैं !
हूक , आह ,पीड़ा, टीस
वे भाव हैं
जो
अपने आकार से
ज्यादा , बहुत ज्यादा समेटे हुये हैं दर्द !
मैं तो यही चाहूँगा कि
काश ! किसी
को
भी , कभी टीस न हो
सर्वत्र सदा सुख ही सुख हो !
शायद ,ऐसा होने नहीं देगा
नियंता पर
क्योंकि
विरह का अहसास
चुभन, कसक , कोख है सृजन की , टीस !
विवेक रंजन श्रीवास्तव "विनम्र"
वे शब्द हैं
जो
अपने आकार से
ज्यादा , बहुत ज्यादा कह डालते हैं !
हूक , आह ,पीड़ा, टीस
वे भाव हैं
जो
अपने आकार से
ज्यादा , बहुत ज्यादा समेटे हुये हैं दर्द !
मैं तो यही चाहूँगा कि
काश ! किसी
को
भी , कभी टीस न हो
सर्वत्र सदा सुख ही सुख हो !
शायद ,ऐसा होने नहीं देगा
नियंता पर
क्योंकि
विरह का अहसास
चुभन, कसक , कोख है सृजन की , टीस !
विवेक रंजन श्रीवास्तव "विनम्र"
चाह जब होती न पूरी
चाह जब होती न पूरी
यत्न हो जाते विफल
बीत जाता समय,अवसर
हाथ से जाते निकल !!
छोड़ जाते टीस मन में
लालसा की प्राप्ति की
क्योंकि यह रहती न आशा
पूर्ण हो पायेगी कल !!
आदमी होता परिस्थिति
से बहुत मजबूर है
क्योंकि उसका लक्ष्य होता
जाता उससे दूर है !!
सफलता पाने का सुनिश्चित
जरूरी सिद्धांत है
समय, श्रम ,सहयोग के संग
लगना कहीं जरूर है !!
प्रो.सी.बी.श्रीवास्तव "विदग्ध"
यत्न हो जाते विफल
बीत जाता समय,अवसर
हाथ से जाते निकल !!
छोड़ जाते टीस मन में
लालसा की प्राप्ति की
क्योंकि यह रहती न आशा
पूर्ण हो पायेगी कल !!
आदमी होता परिस्थिति
से बहुत मजबूर है
क्योंकि उसका लक्ष्य होता
जाता उससे दूर है !!
सफलता पाने का सुनिश्चित
जरूरी सिद्धांत है
समय, श्रम ,सहयोग के संग
लगना कहीं जरूर है !!
प्रो.सी.बी.श्रीवास्तव "विदग्ध"
गुरुवार, 19 मार्च 2009
झूठ को सच बताने लग गये हैं
अब तो चेहरों को सजाने लग गये हैं मुखौटे !
प्रो.सी.बी.श्रीवास्तव "विदग्ध"
सेवानिवृत प्राध्यापक प्रांतीय शिक्षण महाविद्यालय
Jabalpur (M.P.)INDIA
मोबा. 9425484452
Email vivek1959@sify.com
अब तो चेहरों को सजाने लग गये हैं मुखौटे !
इसी से बहुतों को भाने लग गये हैं मुखौटे !
रूप की बदसूरती पूरी छिपा देते हैं ये
झूठ को सच बताने लग गये हैं मुखौटे !
अनेकों तो देखकर असली समझते हैं इन्हें
सफाई !सी दिखाने लग गये हैं मुखौटे !
क्षेत्र हो शिक्षा या आर्थिक धर्म या व्यवसाय का
हरएक में एक मोहिनी बन छा गये हैं मुखौटे !
इन्हीं का गुणगान विज्ञापन भी सारे कर रहे
नये जमाने को सहज ही भा गये हैं मुखौटे !
सचाई और सादगी लोगों को लगती है बुरी
बहुतों को अपने में भरमाने लग गये हैं मुखौटे !
समय के संग लोगों को रुचियों में अब बदलाव है
खरे खारे लग रहे सब मधुर खोटे मुखौटे !
बनावट औ दिखावट में उलझ गई है जिंदगी
हर जगह लगते रिझाते जगमगाते मुखौटे !
मुखौँटों का ये चलन पर ले कहाँ तक जायेगा
है विदग्ध विचारना ये क्यों हैं आखिर मुखौटे !
प्रो.सी.बी.श्रीवास्तव "विदग्ध"
सेवानिवृत प्राध्यापक प्रांतीय शिक्षण महाविद्यालय
Jabalpur (M.P.)INDIA
मोबा. 9425484452
Email vivek1959@sify.com
अब तो चेहरों को सजाने लग गये हैं मुखौटे !
इसी से बहुतों को भाने लग गये हैं मुखौटे !
रूप की बदसूरती पूरी छिपा देते हैं ये
झूठ को सच बताने लग गये हैं मुखौटे !
अनेकों तो देखकर असली समझते हैं इन्हें
सफाई !सी दिखाने लग गये हैं मुखौटे !
क्षेत्र हो शिक्षा या आर्थिक धर्म या व्यवसाय का
हरएक में एक मोहिनी बन छा गये हैं मुखौटे !
इन्हीं का गुणगान विज्ञापन भी सारे कर रहे
नये जमाने को सहज ही भा गये हैं मुखौटे !
सचाई और सादगी लोगों को लगती है बुरी
बहुतों को अपने में भरमाने लग गये हैं मुखौटे !
समय के संग लोगों को रुचियों में अब बदलाव है
खरे खारे लग रहे सब मधुर खोटे मुखौटे !
बनावट औ दिखावट में उलझ गई है जिंदगी
हर जगह लगते रिझाते जगमगाते मुखौटे !
मुखौँटों का ये चलन पर ले कहाँ तक जायेगा
है विदग्ध विचारना ये क्यों हैं आखिर मुखौटे !
मुखौटे.....विवेक रंजन श्रीवास्तव
मुखौटे
बचपन में
मेरे खिलौनों में शामिल थी एक रूसी गुड़िया
जिसके भीतर से निकल आती थी
एक के अंदर एक समाई हुई
हमशकल एक और गुड़िया
बस थोड़ी सी छोटी आकार में !
सातवीं
सबसे छोटी गुड़िया भी बिलकुल वैसी ही
जैसे बौनी हो गई हो
पहली सबसे बड़ी वाली गुड़िया
सब के सब एक से मुखौटौ में !
बचपन में माँ को और अब पत्नी को
जब भी देखता हूँ
प्याज छीलते हुये या
काटते हुये पत्ता गोभी
परत दर परत , मुखौटों सी हमशकल
बरबस ही मुझे याद आ जाती है
अपनी उस रूसी गुड़िया की !
बचपन जीवन भर याद रहता है !
मेरे बगीचे में प्रायः दिखता है
एक गिरगिटान
हर बार एक अलग पौधे पर ,
कभी मिट्टी तो कभी सूखे पत्तों पर
बिलकुल उस रंग के चेहरे में
जहाँ वह होता है
मानो लगा रखा हो उसने
अपने ही चेहरे का मुखौटा
हर बार एक अलग रँग का !
मेरा बेटा
लगा लेता है कभी कभी
रबर का कोई मास्क
और डराता है हमें ,या
हँसाता है कभी
जोकर का मुखौटा लगा कर !
मैँ जब कभी
शीशे के सामने
खड़े होकर
खुद को देखता हूँ तो
सोचता हूँ अपने ही बारे में
बिना कोई आकार बदले
मास्क लगाये
या रंग बदले ही
मैं नजर आता हूँ खुद को
अनगिन आकारों ,रंगो, में
अवसर के अनुरूप
कितने मुखौटे
लगा रखे हैं मैने !
विवेक रंजन श्रीवास्तव
बचपन में
मेरे खिलौनों में शामिल थी एक रूसी गुड़िया
जिसके भीतर से निकल आती थी
एक के अंदर एक समाई हुई
हमशकल एक और गुड़िया
बस थोड़ी सी छोटी आकार में !
सातवीं
सबसे छोटी गुड़िया भी बिलकुल वैसी ही
जैसे बौनी हो गई हो
पहली सबसे बड़ी वाली गुड़िया
सब के सब एक से मुखौटौ में !
बचपन में माँ को और अब पत्नी को
जब भी देखता हूँ
प्याज छीलते हुये या
काटते हुये पत्ता गोभी
परत दर परत , मुखौटों सी हमशकल
बरबस ही मुझे याद आ जाती है
अपनी उस रूसी गुड़िया की !
बचपन जीवन भर याद रहता है !
मेरे बगीचे में प्रायः दिखता है
एक गिरगिटान
हर बार एक अलग पौधे पर ,
कभी मिट्टी तो कभी सूखे पत्तों पर
बिलकुल उस रंग के चेहरे में
जहाँ वह होता है
मानो लगा रखा हो उसने
अपने ही चेहरे का मुखौटा
हर बार एक अलग रँग का !
मेरा बेटा
लगा लेता है कभी कभी
रबर का कोई मास्क
और डराता है हमें ,या
हँसाता है कभी
जोकर का मुखौटा लगा कर !
मैँ जब कभी
शीशे के सामने
खड़े होकर
खुद को देखता हूँ तो
सोचता हूँ अपने ही बारे में
बिना कोई आकार बदले
मास्क लगाये
या रंग बदले ही
मैं नजर आता हूँ खुद को
अनगिन आकारों ,रंगो, में
अवसर के अनुरूप
कितने मुखौटे
लगा रखे हैं मैने !
विवेक रंजन श्रीवास्तव
मंगलवार, 17 मार्च 2009
होली हो ली !
लगाते हो जो मुझे हरा रंग
मुझे लगता है
बेहतर होता
कि , तुमने लगाये होते
कुछ हरे पौधे
और जलाये न होते
बड़े पेड़ होली में .
देखकर तुम्हारे हाथो में रंग लाल
मुझे खून का आभास होता है
और खून की होली तो
कातिल ही खेलते हैं मेरे यार
केसरी रंग भी डाल गया है
कोई मुझ पर
इसे देख सोचता हूँ मैं
कि किस धागे से सिलूँ
अपना तिरंगा
कि कोई उसकी
हरी और केसरी पट्टियाँ उधाड़कर
अलग अलग झँडियाँ बना न सके
उछालकर कीचड़ ,
कर सकते हो गंदे कपड़े मेरे
पर तब भी मेरी कलम
इंद्रधनुषी रंगों से रचेगी
विश्व आकाश पर सतरंगी सपने
नीले पीले ये सुर्ख से सुर्ख रंग , ये अबीर
सब छूट जाते हैं , झट से
सो रंगना ही है मुझे, तो
उस रंग से रंगो
जो छुटाये से बढ़े
कहाँ छिपा रखी है
नेह की पिचकारी और प्यार का रंग ?
डालना ही है तो डालो
कुछ छींटे ही सही
पर प्यार के प्यार से
इस बार होली में .
विवेक रंजन श्रीवास्तव
मुझे लगता है
बेहतर होता
कि , तुमने लगाये होते
कुछ हरे पौधे
और जलाये न होते
बड़े पेड़ होली में .
देखकर तुम्हारे हाथो में रंग लाल
मुझे खून का आभास होता है
और खून की होली तो
कातिल ही खेलते हैं मेरे यार
केसरी रंग भी डाल गया है
कोई मुझ पर
इसे देख सोचता हूँ मैं
कि किस धागे से सिलूँ
अपना तिरंगा
कि कोई उसकी
हरी और केसरी पट्टियाँ उधाड़कर
अलग अलग झँडियाँ बना न सके
उछालकर कीचड़ ,
कर सकते हो गंदे कपड़े मेरे
पर तब भी मेरी कलम
इंद्रधनुषी रंगों से रचेगी
विश्व आकाश पर सतरंगी सपने
नीले पीले ये सुर्ख से सुर्ख रंग , ये अबीर
सब छूट जाते हैं , झट से
सो रंगना ही है मुझे, तो
उस रंग से रंगो
जो छुटाये से बढ़े
कहाँ छिपा रखी है
नेह की पिचकारी और प्यार का रंग ?
डालना ही है तो डालो
कुछ छींटे ही सही
पर प्यार के प्यार से
इस बार होली में .
विवेक रंजन श्रीवास्तव
रविवार, 1 मार्च 2009
जिंदा है संवेदना , है ना !

जिंदा है संवेदना , है ना !
११ जुलाई के मुम्बई ट्रेन विस्फोट के बाद लिखी गई रचना , अप्रकाशित , अप्रसारित .. मेरी डायरी से
विवेक रंजन श्रीवास्तव "विनम्र "
सी ६ , विद्युत मंडल कालोनी , रामपुर , जबलपुर म.प्र.
उस लड़की का हरा कुर्ता
उसके ही खून से तरबतर
लाल हो गया था !
जेहादियों के बर्बर विस्फोट से !
क्षण भर पहले तक
आसन्न विस्फोट से बेखबर
वह हर रोज की तरह अब्बू का खाली टिफिन
लेकर लौट रही थी घर !
सोचता हूँ ,
विस्फोट की योजना बनाते वक्त
और रफ्ता रफ्ता बम के साजो सामान की तैयारी करते समय
फिर बम का रिमोट ट्रिगर दबाने से पहले
कितनी मुश्किल से मारा होगा
उस जुनूनी शख्स ने अपने अंदर की संवेदना को !
घटना स्थल पर
यूनीफार्म में लिपटे थके हारे अमन चैन के रखवालों
के पहुंचने से पहले ही
मदद को बढ़ चुके थे सैकड़ों हाथ
जो हिन्दू या मुसलमान नही थे
वे सिर्फ इंसानी संवेदना के हाथ थे
मतलब साफ है
जिंदा है संवेदना , है ना !
पर उसी भीड़ में भगदड़ में
मीडिया के कैमरे से नजरें बचाकर , जो चुरा रहे थे
लाशों से पर्स , मोबाइल और घड़ियां ,
उन्होंने किस मजबूरी में
कितनी मुश्किल से मारा होगा
अपनी संवेदना को !
उसी संवेदना को , जिसे खुद खुदा रोपता है
हर मन में , माँ के पेट में ही .
दूसरे ही दिन
दुनियां को संवेदना के जिंदा होने का प्रमाण पत्र
हर अस्पताल पर टंगा मिला
जिस पर लिखा था
"ब्लड बैँक्स आर फुल , नो मोर ब्लड इज रिक्वायर्ड एट प्रेजेंट"
यह विजय थी , संवेदना की आतंक पर !
चौबीसों घंटे अपने आप में व्यस्त रहने वाले लोगों की
लम्बी कतारें खून देने को उद्यत देखकर
मेरी आंखे भर आईं
और मुझे संज्ञान हुआ कि
हां , जिंदा है मेरे मन में संवेदना !
शायद तभी भ्रूण निषेचण हुआ इस रचना का !
फिर अफवाहें , झूठे फोन , और
ई मेल धमकी भरे , राष्ट्रपति जी तक को
यह "सिड्यूसिंग नेचर "कितना अप्राकृतिक था ?
कैसे पैशाचिक सुख की तलाश में थे वे ,
यूं ही मजा लेने के लिये .
मुझे लगा कि या तो
अल्ला मियां से जरूर कोई गलती हुई है
ऐसे लोगों को बनाने में या फिर
कहीं कोई कमी है हमारी नैतिक शिक्षा की किताबों में !
वे इंसान , इंसान ही नहीं हैं , जो संवेदना के हत्यारे हैं !
फिर एक समाचार पढ़ा ,
एक लाश को अपना पिता बताकर
मुआवजा तक ले लिया
एक शातिर दिमाग
इंसान , नहीं !
नहीं कुत्ते , कमीने ,नहीं गंदा कीड़ा कहूं या शैतान
मैं शब्द हीन हो रहा हूँ , बेहतर है
उस शख्स को संवेदनाहीन कहकर काम चला लूँ ,
जो मैं कहना चाह रहा हूँ
समझ तो रहे हैं ना आप !
रह रह कर
घड़ी अटक जाती है शाम ६.२७ , ११ जुलाई , मुम्बई पर ,
शायद इसलिये कि जिंदा है मेरे मन की संवेदना !
आप भी टटोलिये अपना मन ,
ढ़ूढ़िये अपने आप को आइने में ,
और बताइये जिंदा है ना आपकी संवेदना !
कुछ कमी हो तो पुनर्जाग्रत कर लीजीये संवेदना
क्योंकि संवेदना हीन नस्ल इंसानी हो ही नहीं सकती !
संवेदना हीन समाज में
एक साथ शुक्रवार को मस्जिद में
खुदा की इबादत को जुटने में
और रविवार को प्रेयर के लिये चर्च में
एकत्रित होने से डरने लगेंगे लोग,
मंदिर में दर्शनो से कतरायेंगे हम
क्योंकि थोड़ा सा आर डी एक्स ही तो चाहिये
भीड़ को चीथड़ों में बदलने के लिये
एक संवेदना हीन शख्स को !
चिकित्सा विज्ञान
अंगों का कर सकता है प्रत्यारोपण
कल को शायद खून भी बन जाये कृत्रिम
पर यांत्रिकता से संवेदना नही जगाई जा सकती !
जानते हैं "क्रिश" क्यों भारी पड़ा "सुपरमैन" पर
क्योंकि
उसमें फंतासी ताकत तो है ही सुपरमैन की ,
संवेदना भी है इंसानी !
परास्त करना चाहते हैं ना आतंकवाद को
तो बस जगाईये अपनी , अपने बच्चों की
और अपने परिवेश में संवेदना .
संवेदना प्राकृतिक है
ईश्वरीय देन है इंसान को
वह बहुत तेजी से फैल सकती है
उसका विस्तार कीजीये अनंत तक
और खुद देखिये अपनी आंखों से
आतंक का विनाश होते हुये !
तो कहिये
जिंदा है ना संवेदना , है ना !
मंगलवार, 27 जनवरी 2009
हो सके तो लौटकर कहना कि फिर से लौट आना है !
माननीय पंकज अग्रवाल IAS , सी एम डी महोदय की बिदाई के अवसर पर शब्द सुमन
विवेक रंजन श्रीवास्तव
vivek1959@yahoo.co.in
09425484452
होते होते बन गये हिस्सा हमारा
और फिर कहने लगे कि लौट जाना है !
जब समझने लग गये थे हम इशारे
कर दिया यह क्यों इशारा लौट जाना है !!
लोग खुश थे छाते से छोटे आसमां में
संभव बनाया आसमाँ से लक्ष्य पाना
मुश्किलों का हल निकाला सौभाग्य था तेरा नेतृत्व पाना
हुई खता क्या कहने लगे जो लौट जाना है !
जा रहे हो जो यहां से जा न पाओगे
याद आओगे सदा हम भी याद आयेंगे
रोशनी घर की चमचमाती रोशनी हो तुम बस जगमगाओगे
हो सके तो लौटकर कहना कि फिर से लौट आना है !
शुभकामना है हमारी और औपचारिक यह बिदाई
हो सदा आनंदमय नव वर्ष का यह पथ तुम्हारा
भूल सारी भूल कर के आजन्म है नाता निभाना
हो सके तो लौटकर कहना कि फिर से लौट आना है !
विवेक रंजन श्रीवास्तव
विवेक रंजन श्रीवास्तव
vivek1959@yahoo.co.in
09425484452
होते होते बन गये हिस्सा हमारा
और फिर कहने लगे कि लौट जाना है !
जब समझने लग गये थे हम इशारे
कर दिया यह क्यों इशारा लौट जाना है !!
लोग खुश थे छाते से छोटे आसमां में
संभव बनाया आसमाँ से लक्ष्य पाना
मुश्किलों का हल निकाला सौभाग्य था तेरा नेतृत्व पाना
हुई खता क्या कहने लगे जो लौट जाना है !
जा रहे हो जो यहां से जा न पाओगे
याद आओगे सदा हम भी याद आयेंगे
रोशनी घर की चमचमाती रोशनी हो तुम बस जगमगाओगे
हो सके तो लौटकर कहना कि फिर से लौट आना है !
शुभकामना है हमारी और औपचारिक यह बिदाई
हो सदा आनंदमय नव वर्ष का यह पथ तुम्हारा
भूल सारी भूल कर के आजन्म है नाता निभाना
हो सके तो लौटकर कहना कि फिर से लौट आना है !
विवेक रंजन श्रीवास्तव
गणतंत्र दिवस
गणतंत्र दिवस
प्रो. सी.बी.श्रीवास्तव "विदग्ध"
सी ६ , विद्युत मंडल कालोनी , रामपुर
जबलपुर
गणतंत्र हो अमर सही जनतंत्र हो अमर
भारत की राजनीति में इसका बढ़े असर
जनतंत्र है जीवन की विधा सबसे पुरानी
शासन समाज व्यक्ति की संयुक्त कहानी
औरो के सुख दुख का जो हर व्यक्ति को हो भान
तो जटिल समस्याओ के भी मिलें समाधान
सब लोग चैन पा सकें हो स्वर्ग हर एक घर
है पूज्य यही नीति नियम , न्याय औ" सद् भाव
स्वातंत्र्य बंधुता समानता नहीं दुराव
साथी की भावनाओ का सब करें सम्मान
कोई न हो टकराव कहीं , हठ हो न अभिमान
हर दिन विकास कर सकें हर गाँव और नगर
जनतंत्र के सिद्धांत ने दुनियां को लुभाया
जग उसकी राह पर सही चल नहीं पाया
कर्तव्य औ" अधिकार का जो हो समान ध्यान
हर व्यक्ति का कल्याण हो , हो देश कअ उत्थान
प्रो. सी.बी.श्रीवास्तव "विदग्ध"
सी ६ , विद्युत मंडल कालोनी , रामपुर
जबलपुर
गणतंत्र हो अमर सही जनतंत्र हो अमर
भारत की राजनीति में इसका बढ़े असर
जनतंत्र है जीवन की विधा सबसे पुरानी
शासन समाज व्यक्ति की संयुक्त कहानी
औरो के सुख दुख का जो हर व्यक्ति को हो भान
तो जटिल समस्याओ के भी मिलें समाधान
सब लोग चैन पा सकें हो स्वर्ग हर एक घर
है पूज्य यही नीति नियम , न्याय औ" सद् भाव
स्वातंत्र्य बंधुता समानता नहीं दुराव
साथी की भावनाओ का सब करें सम्मान
कोई न हो टकराव कहीं , हठ हो न अभिमान
हर दिन विकास कर सकें हर गाँव और नगर
जनतंत्र के सिद्धांत ने दुनियां को लुभाया
जग उसकी राह पर सही चल नहीं पाया
कर्तव्य औ" अधिकार का जो हो समान ध्यान
हर व्यक्ति का कल्याण हो , हो देश कअ उत्थान
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