मंगलवार, 29 दिसंबर 2009

हर सुबह सो रहे हैं, रतजगा हो रहा है,

हर सुबह सो रहे हैं, रतजगा हो रहा है,

विवेकरंजन श्रीवास्तव

मो.नं. 9425484452


हर सुबह सो रहे हैं, रतजगा हो रहा है,
ये कैसा चलन है, ये क्या हो रहा है।


गुनहगार बे खौफ, बेगुनाह फंस रहा है,
ऐसा इंसाफ अक्सर, ये क्या हो रहा है ।

खुद बखुद हुस्न बेहया ,बेपर्दा हो रहा है,
कैसा बेट़ब है फैशन, ये क्या हो रहा है।

दूध तक है नकली, असल सो रहा है,
सामान पैकेट में हो तो ,सब बिक रहा है।

तालीम की सज , गई हैं दुकानें
पिता मंहगी फीस का कर्ज ढ़ो रहा है ।
ये कैसा चलन है, ये क्या हो रहा है।

1 टिप्पणी:

रजनीश 'साहिल ने कहा…

हर सुबह सो रहे हैं, रतजगा हो रहा है,
ये कैसा चलन है, ये क्या हो रहा है।

विवेक जी पहली बार आपके ब्लाग पर आया हूं, अधिक तो नहीं पढ़ सका फिलहाल, पर आपकी यह कविता पसंद आई, यह कहना ज्यादा ठीक होगा कि यह कविता अधिक पसंद आई। ख़ासकर यह पंक्ति -

तालीम की सज गई हैं दुकानें
पिता मंहगी फीस का कर्ज ढ़ो रहा है ।

वर्तमान शिक्षा प्रणाली की तमाम आलोचनाआें में से एक है यह।