शनिवार, 28 मार्च 2009

गोकुल तुम्हें बुला रहा हे कृष्ण कन्हैया ।

प्रो सी बी श्रीवास्तव
सी ६ विद्युत मण्डल कालोनी
रामपुर जबलपुर

गोकुल तुम्हें बुला रहा हे कृष्ण कन्हैया ।
वन वन भटक रही हैं ब्रजभूमि की गैया ।
दिन इतने बुरे आये कि चारा भी नही है
इनको भी तो देखो जरा हे धेनू चरैया ।।१।।

करती हे याद देवी माँ रोज तुम्हारी
यमुना का तट औ. गोपियाँ सारी ।
गई सुख धार यमुना कि उजडा है वृन्दावन
रोती तुम्हारी याद में नित यशोदा मैया ।।२।।

रहे गाँव वे , न लोग वे , न नेह भरे मन
बदले से है घर द्वार , सभी खेत , नदी , वन।
जहाँ दूध की नदियाँ थीं , वहाँ अब है वारूणी
देखो तो अपने देश को बंशी के बजैया ।।३।।

जनमन न रहा वैसा , न वैसा है आचरण
बदला सभी वातावरण , सारा रहन सहन ।
भारत तुम्हारे युग का न भारत है अब कहीं
हर ओर प्रदूषण की लहर आई कन्हैया ।।४।।

आकर के एक बार निहारो तो दशा को
बिगड़ी को बनाने की जरा नाथ दया हो ।
मन मे तो अभी भी तुम्हारे युग की ललक है
पर तेज विदेशी हवा मे बह रही नैया ।।५।।

आये हैं इस संसार में दिनचार के लिए

आये हैं इस संसार में दिनचार के लिए
प्रो सी बी श्रीवास्तव
सी ६ विद्युत मण्डल कालोनी
रामपुर जबलपुर

सब जी रहे हैं जिन्दगी पीरवार के लिए
पर मन में भारी प्यास लिए प्यार के लिए ।
सुख दिखता तो जरूर है पर िमलता नही है
शायद मिले जो हम जिये संसार के लिए।।1।।

हर दिन यहॉ हर एक की नई भाग दौड है
औरो से अधिक पाने की मन मे होड है।
सुख से सही उसका नही कोई है वास्ता
सारी यह आपाधापी है अधिकार के लिए।।2।।

अधिकार ने सबको सदा पर क्षोभ दिया है
जिसको मिला उसको यहॉ बेचैन किया है।
अिधेकार और धन से कभी भी भर न सका मन
रहा हट नई चाहत व्यापार के लिए ।।3।।

भरमाया सदा मोह ने माया ने फंसाया
खुद के सिवा कोई कभी कुछ काम न आया
रातें रही हों चॉदनी या घोर अंधरी
व्याकुल रहा है घर के ही विस्तार के लिए।।4।।

सचमुच यहॉ पर आदमी गुमराह बहुत है
कर पाता है थोडा सा ही करने को बहुत हैं ।
हम जो भी करे नाथ ! हमें इतना ध्यान हो
आये हैं इस संसार में दिन चार के लिए।।5।।

हमें दीजिए भगवान वह सामथ्र्य और ज्ञान
रहे शुध्द जिससे भावना साित्वक रहे विधान
कुछ ऐसा बने हमसे जो हो जग मे काम का

जब अंधेरा हो घना घटायें घिरें

दीप ऐसे जलायें इस दिवाली की रात
कि जो देर तक,दूर तक उजाला करें
हो जहाँ भी, या कि जिस राह पर
पथिक को राह दिखला सहारा करें
जब अंधेरा हो घना घटायें घिरें
राह सूझे न मन में बढ़ें उलझने
देख सूनी डगर, डर लगे तन कंपे
तय न कर पाये मन क्या करें न करें
तब दे आशा जगा आत्म विश्वास फिर
उसके चरणो की गति को संवांरा करें
दीप ऐसे जलायें इस दिवाली की रात
कि जो देर तक, दूर तक उजाला करें
हर घड़ी बढ़ रही हैं समस्यायें नई
अचानक बेवजह आज संसार में
हो समस्या खड़ी कब यहाँ कोई बड़ी
समझना है कठिन बड़ा व्यवहार में
दीप ऐसे हो जो दें सतत रोशनी
पथिक की भूल कोई न गवारा करें
दीप ऐसे जलायें इस दिवाली की रात
कि जो देर तक, दूर तक उजाला करें
रास्ते तो बहुत से नये बन गये
पर बड़े टेढ़े मेढ़े हैं, सीधे नहीं
मंजिलों तक पहुंचने में हैं मुश्किलें
होती हारें भी हैं, सदा जीतें नहीँ
जूझते खुद अंधेरों से भी रात में
पथ दिखायें जो न हिम्मत हारा करें
दीप ऐसे जलायें इस दिवाली की रात
कि जो देर तक, दूर तक उजाला करें

--प्रो.सी.बी.श्रीवास्तव

सिध्दिदायक गजवदन

सिध्दिदायक गजवदन

जय गणेश गणाधिपति प्रभु , सिध्दिदायक , गजवदन
विघ्ननाशक दष्टहारी हे परम आनन्दधन ।।
दुखो से संतप्त अतिशय त्रस्त यह संसार है
धरा पर नित बढ़ रहा दुखदायियो का भार है ।
हर हृदय में वेदना , आतंक का अधियार है
उठ गया दुनिया से जैसे मन का ममता प्यार है ।।
दीजिये सब्दुध्दि का वरदान हे करूणा अयन ।।१।।

संकट की मार दुनियॉ ये खूब सह चुकी है।।

भगवान कृपा कीजे यह विश्व शंाति पाये
प्रो सी बी श्रीवास्तव
सी ६ विद्युत मण्डल कालोनी
रामपुर जबलपुर

भगवान कृपा कीजै . यह विश्व शंाति पाये ।
बढी लोभ की लपट में यह जग झुलस न जाये ।।

नई होड बढ चली हैं हर रोज जिंदगी में
लगता है लोक को भी दिखती खुशी इसी में
पर देख पाती कम है लालच भरी निगाहें
ऐसा न हो अधूरा सपना ही टूट जाये।।1।।

हंसते हुए चेहरो के मन में भी उदासी है
सब पा के भी पाने की इच्छा अभी प्यासी है।
आक्रोश भर रहा है संतोष मर रहा है
इस लू भरी हवा में बगिया उजड न जाये ।।2।।

है घेर रखी सबने कॉटो से अपनी बाडी
गडती है नजरो मे पर औरों की चलती गाडी।
हिल मिल न रह सके तो कब तक चलेगा ऐसे
भगवान ज्योति दो वह जो रास्ता दिखाये।।3।।

सपने सजा सुनहरे सदियों से हर चुकी है
संकट की मार दुनियॉ ये खूब सह चुकी है।।
फिर भी उबर न पाई कमजोरीयो से अपनी
हे नाथ ! ज्ञान दीजै खुद को समझ तो पाये ।।4।।

चाँद की आये खबर तो ईद हुई

आसमां में गुफ्तगू है चल रही ,
चाँद की आये खबर तो ईद हुई
अम्मी बनातीं थीं सिंवईयाँ दूध में ,
स्वाद वह याद आया लो ईद हुई
नमाज हो मन से अदा,
जकात भी दिल से बँटे,
मजहब महज किताब नहीं
पूरे हुये रमजान के रोजों के दिन ,
सौगात जो खुदा की, वो ईद हुई
आतंक होता अंधा जुनूनी बेइंतिहाँ ,
मकसद है क्या इसका भला
गांधी जयंती ईद है इस दफा ,
जो अंत हो आतंक का तो ईद हुई
नजाकत नफासत और तहजीब की
पहचान है मुसलमानी जमात,
आतंक का नाम अब और मुस्लिम न हो,
फैले रहमत तो ईद हुई
कुरान को समझें,
समझें जिहाद का मतलब,
ईद का पैगाम है मोहब्बत
दिल मिलें,भूल कर शिकवे गिले ,
गले रस्मी भर नहीं ,तो ईद हुई
रौनक बाजारों की , मन का उल्लास ,
नये कपड़े ,और छुट्टी पढ़ाई की
उम्मीद से और ज्यादा मिले ,
ईदी बचपन , और बड़प्पन को ईद हुई

--विवेक रंजन श्रीवास्तव

खुदा सबका है सब पर मेहरबांन है,

ईद के चाँद की खोज में हर बरस ,
दिखती दुनियाँ बराबर ये बेजार है
बाँटने को मगर सब पे अपनी खुशी,
कम ही दिखता कहीं कोई तैयार है
ईद दौलत नहीं ,कोई दिखावा नहीं ,
ईद जज्बा है दिल का ,खुशी की घड़ी
रस्म कोरी नहीं ,जो कि केवल निभे ,
ईद का दिल से गहरा सरोकार है !! १!!
अपने को औरों को और कुदरत को भी ,
समझने को खुदा के ये फरमान है
है मुबारक घड़ी ,करने एहसास ये -
रिश्ता है हरेक का , हरेक इंसान से
है गुँथीं साथ सबकी यहाँ जिंदगी ,
सबका मिल जुल के रहना है लाजिम यहाँ
सबके ही मेल से दुनियाँ रंगीन है ,
प्यार से खूबसूरत ये संसार है !!२!!
मोहब्बत, आदमीयत ,
मेल मिल्लत ही तो सिखाते हैं सभी मजहब संसार में
हो अमीरी, गरीबी या कि मुफलिसी ,
कोई झुलसे न नफरत के अंगार में
सिर्फ घर-गाँव -शहरों ही तक में नहीं ,
देश दुनियां में खुशियों की खुश्बू बसे
है खुदा से दुआ उसे सदबुद्धि दें,
जो जहां भी कहीं कोई गुनहगार है !!३!!
ईद सबको खुशी से गले से लगा,
सिखाती बाँटना आपसी प्यार है
है मसर्रत की पुरनूर ऐसी घड़ी,
जिसको दिल से मनाने की दरकार है
दी खुदा ने मोहब्बत की नेमत मगर,
आदमी भूल नफरत रहा बाँटता
राह ईमान की चलने का वायदा,
खुद से करने का ईद एक तेवहार है !!४!!
जो भी कुछ है यहां सब खुदा का दिया,
वह है सबका किसी एक का है नहीं
बस जरूरत है ले सब खुशी से जियें,
सभी हिल मिल जहाँ पर भी हों जो कहीं
खुदा सबका है सब पर मेहरबांन है,
जो भी खुदगर्ज है वह ही बेईमान है
भाईचारा बढ़े औ मोहब्बत पले ,
ईद का यही पैगाम , इसरार है !!५!!

--प्रो.सी.बी.श्रीवास्तव

बुधवार, 25 मार्च 2009

मेरी पहली कविता

मेरी पहली कविता के लिये मुझे स्वयं उसे ढ़ूँढ़ना पड़ा .कानपुर से प्रकाशित मासिक पत्रिका वालण्टियर के अगस्त १९७९ अंक में प्रकाशित व संभवतः इंजीनियरिंग कालेज के दिनों में १९७८ लिखी गई निम्न कविता मेरी पहली काव्य कृति है . इससे पहले की तुकबंदियों को मैं अब कविता मानने में संकोच करता हूँ , ये और बात है कि उन दिनों उन्हीं को लिखकर बड़ा खुश होता था .तभी मैंने अपना पेन नेम भी स्वयं ही रख डाला था "विनम्र" , लीजिये प्रस्तुत है मेरी पहली कविता ....


जीवन का उद्देश्य अगर हो

दिशाहीन सागर को देखो
उमड़ घुमड़ करता क्रंदन
सीमायें उसकी हैं पर बालू के कच्चे बंधन

नदिया की धारा , पर
रोक सकें न पर्वत कानन
कैसे रोकें ? , है दिशा युक्त नदिया का जीवन

पार करती नित नई मंजिले
वह भाग रही आनन फानन
जीवन का उद्देश्य अगर हो सफलता मजबूर करती ,
चरण चुंबन !

--विवेक रंजन श्रीवास्तव "विनम्र"

निभें तो सात जन्मों का,अटल विश्वास हैं रिश्ते ..v.r.shrivastava

मुलायम दूब पर,
शबनमी अहसास हैं रिश्ते
निभें तो सात जन्मों का,
अटल विश्वास हैं रिश्ते
जिस बरतन में रख्खा हो,
वैसी शक्ल ले पानी
कुछ ऐसा ही,
प्यार का अहसास हैं रिश्ते
कभी सिंदूर चुटकी भर,
कहीं बस काँच की चूड़ी
किसी रिश्ते में धागे सूत के,
इक इकरार हैं रिश्ते
कभी बेवजह रूठें,
कभी खुद ही मना भी लें
नया ही रंग हैं हर बार ,
प्यार का मनुहार हैं रिश्ते
अदालत में
बहुत तोड़ो,
कानूनी दाँव पेंचों से लेकिन
पुरानी
याद के झकोरों में, बसा संसार हैं रिश्ते
किसी को चोट पहुँचे तो ,
किसी को दर्द होता है
लगीं हैं जान की बाजी,
बचाने को महज रिश्ते
हमीं को हम ज्यादा तुम,
समझती हो मेरी हमदम
तुम्हीं बंधन तुम्हीं मुक्ती,
अजब विस्तार हैं रिश्ते
रिश्ते दिल का दर्पण हैं ,
बिना शर्तों समर्पण हैं
खरीदे से नहीं मिलते,
बड़े अनमोल हैं रिश्ते
जो
टूटे तो बिखर जाते हैं,
फूलों के परागों से
पँखुरी पँखुरी सहेजे गये,
सतत व्यवहार हैं रिश्ते

--विवेक रंजन श्रीवास्तव

जो सबको बाँधे रखते हैं, ..

कई रंग में रंगे दिखते हैं ,
निश्छल प्राण के रिश्ते
कई हैं खून के रिश्ते,
कई सम्मान के रिश्ते !!
जो सबको बाँधे रखते हैं,
मधुर संबँध बंधन में
वे होते प्रेम के रिश्ते,
सरल इंसान के रिश्ते !!
भरा है एक रस मीठा,
प्रकृति ने मधुर वाणी में
जिन्हें सुन मन हुलस उठता,
हैं मेहमान के रिश्ते !!
जो हुलसाते हैं मन को ,
हर्ष की शुभ भावनाओ से
वे होते यकायक
उद्भूत,
नये अरमान के रिश्ते !!
कभी होती भी देखी हैं,
अचानक यूँ मुलाकातें
बना जाती जो जीवन में,
मधुर वरदान के रिश्ते !!
मगर इस नये जमाने में,
चला है एक चलन बेढ़ब
जहाँ आतंक ने फैलाये,
बिन पहचान के रिश्ते !!
सभी भयभीत हैं जिनसे,
न मिलती कोई खबर जिनकी
जो हैं आतंकवादी दुश्मनों से,
जान के रिश्ते !!

--प्रो.सी.बी.श्रीवास्तव "विदग्ध"

मंगलवार, 24 मार्च 2009

घटती जाती सुख सुविधायें , बढ़ती जाती है मँहगाई !!

घटती जाती सुख सुविधायें , बढ़ती जाती है मँहगाई
औ॔" जरूरतों ने जेबों संग , है अनचाही रास रचाई

मुश्किल में हर एक साँस है , हर चेहरा चिंतित उदास है
वे ही क्या निर्धन निर्बल जो , वो भी धन जिनका कि दास है
फैले दावानल से जैसे , झुलस रही सारी अमराई !
घटती जाती सुख सुविधायें , बढ़ती जाती है मँहगाई !!

पनघट खुद प्यासा प्यासा है , क्षुदित श्रमिक ,स्वामी किसान हैं
मिटी मान मर्यादा सबकी , हर घर गुमसुम परेशान है
कितनों के आँगन अनब्याहे , बज न पा रही है शहनाई
घटती जाती सुख सुविधायें , बढ़ती जाती है मँहगाई !!

मेंहदी रच जो चली जिंदगी , टूट चुकी है उसकी आशा
पिसा जा रहा आम आदमी , हर चेहरे में छाई निराशा
चलते चलते शाम हो चली , मिली न पर मंजिल हरजाई
घटती जाती सुख सुविधायें , बढ़ती जाती है मँहगाई !!

मिट्टी तक तो मँहगी हुई है , हुआ आदमी केवल सस्ता
चूस रही मंहगाई जिसको , खुलेआम दिन में चौरस्ता
भटक रही शंकित घबराई , दिशाहीन बिखरी तरुणाई
घटती जाती सुख सुविधायें , बढ़ती जाती है मँहगाई !!

नई समस्यायें मुँह बाई , आबादी ,वितरण , उत्पादन
यदि न सामयिक हल होगा तो ,रोजगार ,शासन , अनुशासन
राष्ट्र प्रेम , चारीत्रिक ढ़ृड़ता की होगी कैसे भरपाई ?
घटती जाती सुख सुविधायें , बढ़ती जाती है मँहगाई !!

--प्रो.सी.बी.श्रीवास्तव

मँहगी थाली , मँहगी शिक्षा , मँहगी यात्रा और चिकित्सा................

आम आदमी चिंता में है , कारण इसका है मँहगाई
खास सभी चिंतन में हैं सब , कारण इसका है मँहगाई

अखबारों में सुर्ख हुआ है, "प्राइस इंडैक्स" का बढ़ा केंचुआ
खबरों में "बाजार" बना है , कारण इसका है मँहगाई

सरकारें संकट में हैं सब , जोड़ तोड़ और उठा पटक है
कुर्सी सबकी डोल रही है , कारण इसका है मँहगाई

भारतीय भोजन की चर्चा , आबादी का बढ़ता खर्चा
अमरीकी सीनेट करते हैं , कारण इसका है मँहगाई

राशन पहुँचाने गरीब को , शासन सारा जुटा हुआ है
सुरसा मुख सा बढ़ा बजट है , कारण इसका है मँहगाई

चादर कितनी भी फैलाओ , फिर फिर पाँव उघड़ जाते हैं
सभी विवश हैँ पैर सिकोड़े , कारण इसका है मँहगाई

मँहगी थाली , मँहगी शिक्षा , मँहगी यात्रा और चिकित्सा
यही चाहते हैं हम सब अब , किसी तरह कम हो मंहगाई !

--विवेक रंजन श्रीवास्तव "विनम्र

सोमवार, 23 मार्च 2009

खनक पैसों की इतनी हुई सुहानी बिक रहा पानी

बड़ी तब्दीलियाँ हुई हैं अंधेरे से उजाले तक
नया दिखता है सब कुछ हर घर से दिवाले तक

पुराने घर पुराने लोग उनकी पुरानी बातें
बदल गई सारी दुनियाँ उनकी थाली से प्याले तक

चली है जो नई फैशन बनावट की दिखावट की
लगे दिखने हैं कई चेहरे उससे गोरे कई काले तक

ली व्यवहारों ने करवट इस तरह बदले जमाने में
किसी को डर नहीं लगता कहीं करने घोटाले तक

निडर हो स्वार्थ अपना साधने अक्सर ये दिखता है
दिये जाने लगे हैं झूठे मनमाने हवाले तक

बताने बोलने रहने पहिनने के तरीकों में
नया पन है परसने और खाने में निवाले तक

जमाने की हवा से अब अछूता कोई नहीं दिखता
झलक दिखती नई रिश्तों में अब जीजा से साले तक

खनक पैसों की इतनी हुई सुहानी बिक रहा पानी
नहीं देते जगह अब ठहरने को धर्मशाले तक

फरक आया है तासीरों में भारी नये जमाने में
नहीं दे पाते गरमाहट कई ऊनी दुशाले तक

हैं बदले मौसमों ने आज तेवर यों "विदग्ध" अपने
नहीं दे पाते सुख गर्मी में कपड़े ढ़ीले ढ़ाले तक

- प्रो सी बी श्रीवास्तव

शब्दों की सीमा असीम है शब्द ब्रह्म है शाश्वत हैं

हौसलों की कसर है बस लहरों से किनारे तक
रात भर का फासला है अँधेरे से उजाले तक

दूर बहुत लगती हो खुद में ही उलझी उलझी
हाथ भर का फासला है हमारे से तुम्हारे तक

मोहब्बत लेती है इम्तिहान कई कई मुश्किल
पहुँचती है तब जाकर अँखियों के इशारे तक

घुली हुई हो गंध हवन की पवन में जैसे
वैसी ही तू बसी हुई है घर के द्वारे द्वारे तक

कौन है जिसके आगे हमसब हरदम बेबस होते है
कैद नहीं ताकत वो कोई मस्जिद और दिवाले तक

घोटालों की शकलें बदलीं वही कहानी पर हर बार
कभी है मंदी कभी है तेजी हर्षद और हवाले तक

शब्दों की सीमा असीम है शब्द ब्रह्म है शाश्वत हैं
शब्द ज्ञान हैँ शब्द शक्ति हैं पोथी और रिसाले तक

- विवेक रंजन श्रीवास्तव