रविवार, 1 मार्च 2009

जिंदा है संवेदना , है ना !


जिंदा है संवेदना , है ना !

११ जुलाई के मुम्बई ट्रेन विस्फोट के बाद लिखी गई रचना , अप्रकाशित , अप्रसारित .. मेरी डायरी से

विवेक रंजन श्रीवास्तव "विनम्र "
सी ६ , विद्युत मंडल कालोनी , रामपुर , जबलपुर म.प्र.

उस लड़की का हरा कुर्ता
उसके ही खून से तरबतर
लाल हो गया था !
जेहादियों के बर्बर विस्फोट से !
क्षण भर पहले तक
आसन्न विस्फोट से बेखबर
वह हर रोज की तरह अब्बू का खाली टिफिन
लेकर लौट रही थी घर !

सोचता हूँ ,
विस्फोट की योजना बनाते वक्त
और रफ्ता रफ्ता बम के साजो सामान की तैयारी करते समय
फिर बम का रिमोट ट्रिगर दबाने से पहले
कितनी मुश्किल से मारा होगा
उस जुनूनी शख्स ने अपने अंदर की संवेदना को !

घटना स्थल पर
यूनीफार्म में लिपटे थके हारे अमन चैन के रखवालों
के पहुंचने से पहले ही
मदद को बढ़ चुके थे सैकड़ों हाथ
जो हिन्दू या मुसलमान नही थे
वे सिर्फ इंसानी संवेदना के हाथ थे
मतलब साफ है
जिंदा है संवेदना , है ना !

पर उसी भीड़ में भगदड़ में
मीडिया के कैमरे से नजरें बचाकर , जो चुरा रहे थे
लाशों से पर्स , मोबाइल और घड़ियां ,
उन्होंने किस मजबूरी में
कितनी मुश्किल से मारा होगा
अपनी संवेदना को !
उसी संवेदना को , जिसे खुद खुदा रोपता है
हर मन में , माँ के पेट में ही .

दूसरे ही दिन
दुनियां को संवेदना के जिंदा होने का प्रमाण पत्र
हर अस्पताल पर टंगा मिला
जिस पर लिखा था
"ब्लड बैँक्स आर फुल , नो मोर ब्लड इज रिक्वायर्ड एट प्रेजेंट"
यह विजय थी , संवेदना की आतंक पर !
चौबीसों घंटे अपने आप में व्यस्त रहने वाले लोगों की
लम्बी कतारें खून देने को उद्यत देखकर
मेरी आंखे भर आईं
और मुझे संज्ञान हुआ कि
हां , जिंदा है मेरे मन में संवेदना !
शायद तभी भ्रूण निषेचण हुआ इस रचना का !

फिर अफवाहें , झूठे फोन , और
ई मेल धमकी भरे , राष्ट्रपति जी तक को
यह "सिड्यूसिंग नेचर "कितना अप्राकृतिक था ?
कैसे पैशाचिक सुख की तलाश में थे वे ,
यूं ही मजा लेने के लिये .
मुझे लगा कि या तो
अल्ला मियां से जरूर कोई गलती हुई है
ऐसे लोगों को बनाने में या फिर
कहीं कोई कमी है हमारी नैतिक शिक्षा की किताबों में !
वे इंसान , इंसान ही नहीं हैं , जो संवेदना के हत्यारे हैं !

फिर एक समाचार पढ़ा ,
एक लाश को अपना पिता बताकर
मुआवजा तक ले लिया
एक शातिर दिमाग
इंसान , नहीं !
नहीं कुत्ते , कमीने ,नहीं गंदा कीड़ा कहूं या शैतान
मैं शब्द हीन हो रहा हूँ , बेहतर है
उस शख्स को संवेदनाहीन कहकर काम चला लूँ ,
जो मैं कहना चाह रहा हूँ
समझ तो रहे हैं ना आप !

रह रह कर
घड़ी अटक जाती है शाम ६.२७ , ११ जुलाई , मुम्बई पर ,
शायद इसलिये कि जिंदा है मेरे मन की संवेदना !
आप भी टटोलिये अपना मन ,
ढ़ूढ़िये अपने आप को आइने में ,
और बताइये जिंदा है ना आपकी संवेदना !
कुछ कमी हो तो पुनर्जाग्रत कर लीजीये संवेदना
क्योंकि संवेदना हीन नस्ल इंसानी हो ही नहीं सकती !


संवेदना हीन समाज में
एक साथ शुक्रवार को मस्जिद में
खुदा की इबादत को जुटने में
और रविवार को प्रेयर के लिये चर्च में
एकत्रित होने से डरने लगेंगे लोग,
मंदिर में दर्शनो से कतरायेंगे हम
क्योंकि थोड़ा सा आर डी एक्स ही तो चाहिये
भीड़ को चीथड़ों में बदलने के लिये
एक संवेदना हीन शख्स को !

चिकित्सा विज्ञान
अंगों का कर सकता है प्रत्यारोपण
कल को शायद खून भी बन जाये कृत्रिम
पर यांत्रिकता से संवेदना नही जगाई जा सकती !

जानते हैं "क्रिश" क्यों भारी पड़ा "सुपरमैन" पर
क्योंकि
उसमें फंतासी ताकत तो है ही सुपरमैन की ,
संवेदना भी है इंसानी !

परास्त करना चाहते हैं ना आतंकवाद को
तो बस जगाईये अपनी , अपने बच्चों की
और अपने परिवेश में संवेदना .
संवेदना प्राकृतिक है
ईश्वरीय देन है इंसान को
वह बहुत तेजी से फैल सकती है
उसका विस्तार कीजीये अनंत तक
और खुद देखिये अपनी आंखों से
आतंक का विनाश होते हुये !
तो कहिये
जिंदा है ना संवेदना , है ना !