स्वर्ण मृग हैं विज्ञापन
जिनका पीछा कर रहे हैं हम
भौतिकता के मारीच ये
गायब हो जाते हैं पल दो पल में
छोड़ जाते हैं
मृगतृष्णा
मृग मरीचिका के
काल्पनिक जल में
खूब नहा रहे हैं हम
ओढ़ रहे हैं
साफ्टवेयर का आकाश
धरती का हार्डवेयर
बिछा रहे हैं हम
इंटरनेट के युग में
बस
मृगतृष्णा ही पा रहे हैं हम
कस्तूरी की गंध है परमात्मा
जो हम सबके अंतस में है
पर उसे पाने
कस्तूरी मृग की तरह
जीवन के जंगल में
भटकते ही जा रहे हैं हम
समझकर भी सच
मृगतृष्णा से प्यास बुझा रहे हैं हम
विवेक रंजन श्रीवास्तव 'विनम्र'
1 टिप्पणी:
क्या करें बिना विज्ञापन के गुजारा भी नहीं....
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