हौसलों की कसर है बस लहरों से किनारे तक
रात भर का फासला है अँधेरे से उजाले तक
दूर बहुत लगती हो खुद में ही उलझी उलझी
हाथ भर का फासला है हमारे से तुम्हारे तक
मोहब्बत लेती है इम्तिहान कई कई मुश्किल
पहुँचती है तब जाकर अँखियों के इशारे तक
घुली हुई हो गंध हवन की पवन में जैसे
वैसी ही तू बसी हुई है घर के द्वारे द्वारे तक
कौन है जिसके आगे हमसब हरदम बेबस होते है
कैद नहीं ताकत वो कोई मस्जिद और दिवाले तक
घोटालों की शकलें बदलीं वही कहानी पर हर बार
कभी है मंदी कभी है तेजी हर्षद और हवाले तक
शब्दों की सीमा असीम है शब्द ब्रह्म है शाश्वत हैं
शब्द ज्ञान हैँ शब्द शक्ति हैं पोथी और रिसाले तक
- विवेक रंजन श्रीवास्तव
1 टिप्पणी:
बहुत ख़ूब फ़रमाते हैं श्रीवास्तव साहब । सुन्दर रचना ।
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