मंगलवार, 9 अक्तूबर 2007

खिचडी

खिचडी
विवेक रंजन श्रीवास्तव
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बीरबल तुम्हारी जाने कब
पकने वाली
खिचडी
जो तुमने पकाई थी कभी
उस गरीब को
न्याय दिलाने के लिये
क्यों आज न्याय के नाम पर
पेशी दर पेशी पक रही है
पक रही है पक रही है
खिचडी क्यों
बगुलों और काले कौऔ की ही गल रही है
और आम जनता
सूखी लकडी सी
देगची से
बहुत नीचे
बेवजह जल रही है
दाल में कुछ काला है जरूर
क्योंकि
रेवडी
सिर्फ अपनों को ही बंट रही है
रेवडी तो हमें चाहिये भी नहीं बीरबल
पर मुश्किल यह है कि
दो जून किचडी भी नहीं मिल रही है

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