बुधवार, 10 अक्तूबर 2007

समेट लो सूरज की सारी धूप

समेट लो सुरज की सारी धूप
विवेक रंजन श्रीवास्तव
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लखपती करोडपती
अरबपती
फिर भी और कुछ और
आकाँक्षा का अँतहीन छोर
कल के लिये ही सँजोना है ना तुम्हेँ ?
हो सके तो समेट लो सूरज की सारी धूप
कैद कर लो पूर्णिमा की चाँदनी
और रोक लो बहती हुई हवा
जाने कल मिले न मिले
पर इस सबके लिये तुम्हारी तिजोरी
बहुत छोटी पड जायेगी !
एक बात और
भर पेट ही खा पाओगे
और उतना ही कर पाओगे उपभोग
जितना कर लोगे
समेटने की हविश
से हटकर
उन्मुक्त विचरण करते हुये

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